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योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की कया
प्राचीनकाल में साकेत नगर में चंद्रावतंसक राजा राज्य करता था। उसके चन्द्र-समान मनोहर आकृति वाला मुनिचन्द्र नाम का एक पुत्र था। भारवाही से भार से घबराता है, वैसे ही कामभोगों से विरक्त हो कर उसने सागरचन्द्र मुनि के पास दीक्षा अंगीकार की। जगत्पूजनीय प्रव्रज्या का पालन करते हुए एक बार उसने अपने गुरु के साथ देशान्तर में विचरण करने हेतु बिहार किया। मार्ग में वह एक गांव में भिक्षा के लिए गया । परन्तु वह लौट कर आया तब तक सार्थ वहां से चल पड़ा था। वह सार्थ से अलग हो गया। अतः सार्थभ्रष्ट हिरन के समान वह अकेला ही अटवी में भ्रमण करने लगा। भूख-प्यास से परेशान हो कर वह वहां बीमार पड़ गया। वहीं चार ग्वालों ने बान्धव की तरह उसकी सेवा की । ग्वालों के इस उपकार का बदला चुकाने की दृष्टि से मुनि ने उन्हें धर्मोपदेश दिया। सच है, सन्जनपुरुष अपकार करने वाले पर भी दया करते हैं तो उपकारी पर क्यो न करेंगे? उपदेश सुन कर उन्हें संसार से विरक्ति हुई और मुनि से उन्होंने दीक्षा अंगीकार की। मुनि बने हुए वे चारों ऐस प्रतीत होते थे, मानो चार प्रकार का धर्म ही मूर्तिमान हो । उनमें से दो तो सम्यक् प्रकार से चारित्र की आराधना करते थे, परन्तु शेष दो धर्म से घृणा करते थे। 'जीवों की मनोवृत्ति बड़ी विचित्र होती है।' धर्म की निंदा करने वाले वे दोनों साधु भी एक दिन मर कर देवलोक में गये । 'सच है, एक दिन के तप से भी जीव अवश्य स्वर्ग में चला जाता है। देवलोक से आयुष्य पूर्ण कर वे दोनों दशपुर नगर में शांडिल्य ब्राह्मण की जयवंती नाम की दासी के गर्भ से जोड़े से पुत्ररूप में पैदा हुए । धीरे-धीरे बड़े हुए । यौवन अवस्था प्राप्त की। सयाने होने पर वे दोनों पिता की आज्ञानुसार खेत की रखवाली करने लगे। दासीपुत्रों को तो ऐसा ही कार्य सौंपा जाता है । एक दिन वे दोनों खेत में सोये हुए थे कि रात को अचानक एक काला सर्प बड़ के खोखले में से निकला और यमराज के सहोदर के समान उसने दोनो में से एक को डस लिया। दूसरे भाई को जागने पर पता लगा तो वह उस सर्प को ढूढ़ने के लिए वहीं इधर-उधर घूम रहा था कि अचानक शत्रु की तरह झपट कर उस दुष्ट सर्प ने तत्काल ही दूसरे भाई को भी इस लिया। उस समय वहां उनका जहर उतारने वाला कोई नहीं था। इस कारण वे बेचारे वही पर कालकवलित हो गये । वे दोनों संसार में जैसे आये थे, वैसे ही चले गये । संसार में ऐसे निष्फल जन्म वाले को धिक्कार है । मृत्यु के बाद वे दोनों कालिंजर पर्वत के मैदान में एक हिरणी के गर्भ से जोड़े से मृगरूप में पैदा हुए ; और साथ हो साथ बढ़ने लगे। एक दिन दोनों हिरन प्रेम से साथ-साथ चर रहे थे कि अचानक किसी शिकारी ने एक ही बाण से उन दोनों को बींध डाला। अत: दोनों वही मर कर मृतगगा नदी में एक राजहंसी के गर्भ से पूर्व-जन्मों की तरह युगल हंस-रूप में उत्पन्न हुए। एक बार वे दोनों हंस एक जलाशय में क्रीड़ा कर रहे थे कि एक जलपारधि ने उन्हें जल में ही पकड़ा और उनकी गर्दन मरोड़ कर मार डाला। वास्तव में धर्महीन की गति ऐसी ही होती है । मर कर उन दोनो ने वाराणसी में प्रचुर धनसमृद्ध मातंगाधिपति भूतदत्त के यहां पुत्ररूप में जन्म लिया। उन दोनों का नाम चित्र और संभूति रखा गया। यहां भी वे दोनों परस्पर अत्यन्त स्नेही थे। नख और मांस के अभिन्न सम्बन्ध की तरह वे दोनों एक दूसरे से कभी अलग नहीं होते थे।
वाराणसी में उस समय शंख नामक राजा राज्य करता था। उसका प्रधानमंत्री लोकप्रसिद्ध नमुचि था। एक दिन शंख राजा ने नमुचि को किसी घोर अपराध के कारण वध करने हेतु भूतदत्त चांडाल को सौंपा । उसने नमुचि से कहा-'यदि तुम मेरे दोनों पुत्रों को गुप्तरूप से भूमिगृह (तलघर) में रह कर