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योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश
अब हिंसा के नियम को स्पष्टता से समझाने के लिए दृष्टान्त देते हैं
आत्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तामात्मनाऽनिष्टांसामन्यस्य नाचरेत् ॥२०॥
अर्थ से स्वयं को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है, वैसे ही, जीवों को भी सुख प्रिय और दुख अप्रिय है, ऐसा विचार कर स्वयं के लिये अनिष्टरूप हिंसा का आचरण दूसरे के लिए भी न करे।
व्याख्या यहां सुख-शब्द से सुख के साधन अन्न, जल, पुष्पमाला चन्दन आदि तथा दुख-शब्द से दुःख के साधन-वध, बंधन, मरण आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। दुख के साधन स्वयं की तरह दूसरे को भी अप्रिय हैं ; इसलिये हिंसादि (दु:खोत्पादक क्रिया) नहीं करनी चाहिए । यहां सुख और दुःख को एक सरीखी अनुभूति को दृष्टान्त से समझाने के लिए कहते हैं-जैसे स्वयं को सुख के साधन प्रिय हैं, और दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरे सभी प्रकार के जीवों को ये प्रिय और अप्रिय हैं। अन्य धर्मग्रन्थों में भी इसी बात की पुष्टि की है - "धर्म का सार सुनो और सुन कर उसे मन में यथार्थरूप मे धारण करो, फिर जो बात अपनी आत्मा के प्रतिकुल हो, उसे दूसरों के लिए भी मत करो।"
यहाँ एक शंका प्रस्तुत करते हैं कि-"शास्त्र द्वारा निषिद्ध वस्तु का आचरण किया जाए तो दोष लगता है, किंतु यहां त्रसजीवों की हिंसा का तो निषेध किया है, लेकिन स्थावरजीवों की हिमा का तो निषेध नहीं किया है ; अतः गृहस्थ श्रावक किसी भी रूप में स्थावरजीवों की हिंसा में स्वेच्छा से प्रवृत्ति करे तो क्या दोष है ? इसी का समाधान देते हैं
निरथिकां न कुर्वीत जोवेषु स्थावरेष्वपि । हसा साधर्मज्ञः काङ्क्षन् मोक्षमुपासकः ॥२१॥
अर्थ अहिंसाधर्म को जानने वाला मुमुम श्रमणोपासक स्थावरजीवों को भी निरर्थक हिंसा न करे।
व्याख्या पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवों (स्थावरों) की भी निरर्थक हिंसा नहीं करनी चाहिए । शरीर और कुटुम्ब के निर्वाह के लिए अनावश्यक हिंसा का यहां निपेध किया गया है । वस्तुतः विवेकी श्रावक शरीर एवं कुटुम्ब आदि के प्रयोजन के अतिरिक्त व्यर्थ हिंसा नहीं करता । अहिंसा-धर्म को मानने वाला यह भली-भांति जानता है कि निषिद्ध वस्तु नक ही अहिंसाधर्म सीमित नहीं है; अपितु अनिषिद्ध वस्तु में भी यतनारूप अहिंसा-धर्म है। इसलिए वह उस धर्म को भलीभांति समझ कर वर्गर प्रयोजन स्थावरजीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करता। अतः जो शंका उठाई गई थी कि निषिद्ध अहिंसा का आचरण इतनी सूक्ष्मदृष्टि से श्रावक क्यों करे ? इसके समाधान के रूप में कहा गया हैमोक्षमिलापी श्रावक साधु की तरह निरर्थक हिंसा का आचरण कतई न करे। यहां पुनः एक शंका उठाई जाती है कि जो व्यक्ति निरंतर हिंसा करने में तत्पर रहता है. वह अपना सर्वस्व धन और सर्वस्व