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क्या करे यह बेचारा प्रात्मा ! बाहर की सूचनाएं और जानकारियां ही इतनी माती रहती हैं कि अन्तर में जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रात्मतत्त्व विराजमान है, उसकी ओर झांकने की भी इसे फुर्सत नहीं है।
इन्द्रियों के माध्यम से परज्ञेयों में उलझा यह आत्मा स्वज्ञेय निजात्मा को आज तक जान ही नहीं पाया- उसे माने कैसे, उसमें जमे कैसे, रमे कैसे ? यही एक विकट समस्या है।
आत्मा में जमना-रमना ही संयम है। अतः संयम को प्राप्त करने के लिये मात्र इन्द्रियभोगों को नहीं, इन्द्रियज्ञान को भी तिलाञ्जलि देनी होगी, चाहे वह अन्तमूहर्त को ही सही। इन्द्रियज्ञान में उपादेय बुद्धि तो छोड़नी ही होगी। उसके बिना तो सम्यग्दर्शन भी सम्भव नहीं है और सम्यग्दर्शन के बिना संयम होता नही है।
'पंचेन्द्रिय मन वश करो' का आशय इन्द्रियों को तोड़ना-फोड़ना नहीं वरन् उनके भोगों एवं उनके माध्यम से होने वाली ज्ञान की बर्बादी को रोकना ही है।
यहाँ एक प्रश्न यह भी सम्भव है कि प्रात्मा का स्वभाव स्वपरप्रकाशक है, तो फिर पर को जानने में क्या हानि है ?
पर को जाननामात्र बंध का कारण नहीं है। केवली भगवान पर को जानते ही हैं । यदि लोकालोक को जानने वाला पूर्णज्ञान हो तो फिर पर को नहीं जानने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । पर बात यह है कि छयस्थों (अल्पज्ञानियों) का उपयोग एक साथ अनेक ओर नहीं रहता, एक बार एक ज्ञेय को ही जानता है । जब उनका उपयोग पर की ओर रहता है तब-तब प्रात्मा जानने में नहीं पाता, प्रा भी नहीं सकता। यही कारण है कि पर में उपयोग लगे रहने से प्रात्मा के जानने में, प्रात्मानुभूति में बाधा पहुंचती है। दूसरे इन्द्रियों के माध्यम से जितना भी जानना होता है, वह सब पुद्गल का ही होता है । यही कारण है कि इन्द्रियज्ञान प्रात्मज्ञान में साधक नहीं बल्कि बाधक है।
पर यह अपने को चतुर मानने वाला जगत कहता है कि अपना पाडा यदि दूसरे की भैंस का दूध पी आवे तो क्या हानि है ? अपनी भंस का दूध दूसरों के पाडे को नहीं पीने देना चाहिए । पर उसे यह पता नहीं है यदि अपना पाडा प्रतिदिन दूसर की भैंस का दूध पीता