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७० धर्म के दशलक्षरण
हड्डियाँ एक-मी होने पर भी प्रगती - मिथ्यादृष्टि अपवित्र हैं और सम्यग्दृष्टि व्रती - महात्रनी पवित्र हैं ।
इससे यह सहज सिद्ध है कि आत्मा की पवित्रता वीतरागता में है और पवित्रता मोह राग-द्वेष में; खून - माँस-हड्डी का उससे कोई सम्बन्ध नहीं ।
वादिराज मुनिराज के शरीर में कोढ़ हो गया था, फिर भी वे परम पवित्र थे, शौचधर्म के धनी थे । गृहस्थावस्था में सनतकुमार चक्रवर्ती की जब कंचन जैसी काया थी, जिनके सौन्दर्य की चर्चा इन्द्रसभा में भी चलती थी, जिसे सुनकर देवगरण उनके दर्शनार्थ आते थे; तब तो उनके उस स्तर का शौचधर्म नहीं था, जिस स्तर का मुनि अवस्था में था । जबकि मुनि श्रवस्था में उनके शरीर में कोढ़ हो गया था, जो सानमौ वर्ष तक रहा। उस कोढ़ी दशा में भी उनके तीन कपाय के प्रभावरूप शोचधर्म मौजूद था ।
जरा विचार तो करो कि शौचधर्म क्या है ? इसे शरीर की शुद्धि तक सीमित करना तत्सम्बन्धी प्रज्ञान ही है ।
व्यवहार से उसे भी कहीं-कहीं शौचधर्म कह दिया जाता है, पर वस्तुतः लोभान्त-कषायों का अभाव ही शौचधर्म है । दूसरे शब्दों में वीतरागता ही वास्तविक शौचधर्म है ।
पूर्ण वीतरागता और केवलज्ञान प्रतिदिन नहाने वालों को नहीं, जीवन भर नहीं नहाने की प्रतिज्ञा करने वालों को प्राप्त होते हैं ।
लोग कहते हैं - हड्डी आदि अपवित्र पदार्थों के छू जाने पर तो नहाना ही पड़ता है ?
हाँ! हाँ !! नहाना पड़ता है, पर किसे ? हड्डियों को ही न ? आत्मा तो ग्रस्पर्णस्वभावी है, उसे तो पानी छू भी नहीं सकता है । हड्डियाँ ही नहाती हैं ।
यदि ऐसी बात है तो फिर मुनिराज नहाने का त्याग क्यों करते हैं ?
मुनिराज नहाने का नहीं, नहाने के राग का त्याग करते हैं । और जब नहाने का राग ही उन्हें नहीं रहा, तो फिर नहाना कैसे हो सकता है ?