________________
६८ धर्म के दशलक्षरण
लोभकपाय सबसे मजबूत कषाय है । यही कारण है कि वह सबसे अन्त तक रहती है। जब इसका भी प्रभाव हो जाता है तब शौचधर्म प्रकट होता है, अतः वह महान धर्म है ।
इस महान शौचधर्म को लोगों ने नहाने धोने तक सीमित कर दिया है । नहाना-धोना बुरा है - यह मैं नहीं कहता; पर उसमें वास्तविक शुचिता नहीं, उससे शौचधर्म नहीं होता । शौचधर्म का जैसा प्रकर्ष अस्नानव्रती मुनिराजों के होता है, वैसा दिन में तीन-तीन बार नहाने वाले गृहस्थों के नहीं ।
पूजनकार कहा भी है :
प्राणी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावतें । नित गंगजमुन ममुद्र नहाये, अशुचि दोष सुभावतें ।। ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै । बहु देह मैली मुगुन थैली, शौच गुन साधू लहै ।।
स्वभाव से तो प्रात्मा परम पवित्र है ही; पर्याय में जो मोहराग-द्वे की पवित्रता है, वह नहाने धोने से जाने वाली नहीं । वह आत्मज्ञान, आत्मध्यान, शील-सयम, जप-तप के प्रभाव से ही जायगी । देह तो हाड़-मांस से बनी होने से स्वभावतः ही प्रशुचि है । यह गंगाजमुना में मल-मलकर नहाने से पवित्र होने वाली नहीं है । यह देह तो उस घड़े के समान है जो ऊपर से निर्मल दिखाई देता है, पर् जिसके भीतर मल भरा हो। ऐसे घड़े को कितना ही मल-मलकर शुद्ध करो वह पवित्र होने वाला नहीं । उसीप्रकार यह शरीर है; इसकी कितनी ही सफाई करो, जब यह मैल से ही बना है तो पवित्र कैसे हो सकता है ?
यद्यपि यह देह मैनी है तथापि इसमें अनन्तगुणों का पिण्ड आत्मा विद्यमान है, अतः एक प्रकार से यह मुगुरणों की थैली है । यही कारण है कि देह की सफाई पर ध्यान भी न देने वाले मुनिराज आत्मगुणों का विकास करके शौचधर्म को प्रकट करते हैं ।
दूसरी बात यह भी तो है कि शौचधर्म श्रात्मा का धर्म है, शारीरिक अपवित्रता से उसको क्या लेना-देना ? फिर शरीर तो मैल का ही बना है। खून. माँस, हड्डी आदि के अतिरिक्त और शरीर है ही क्या ? जब ये सभी पदार्थ अपवित्र हैं तो फिर इन सबके समुदायरूप शरीर को पवित्र कैसे किया जा सकता है ?