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६४ धर्म के दशलक्षरण
पंडितजी के कहने पर पाँच मजदूर बुलवाये गये तथा उनको थैलियाँ देकर बेतवा नदी के किनारे चन्नने को कहा । साथ में सेठजी और पंडितजी भी थे ।
गहरी धार के किनारे पहुँचकर पंडितजी ने सेठजी से कहा कि इन रुपयों को नदी की गहरी धार में फेंक दो और घर चलकर गजरथ की तैयारी करो । जब सेठजी बिना मीन-मेख किये फेंकने को तैयार हो गये तो पंडितजी ने रोक दिया और कहा अब तुम पंचकल्याणक करा सकते हो । तात्पर्य यह कि यह समझो कि पाँच हजार तो पानी में गये, अब और हिम्मत हो तो आगे बात करो ।
उस ममय के पाँच हजार ग्राज के पाँच लाख के बराबर थे । पंडितजी सेठजी का हृदय देखना चाहते थे । वाद में बहुत जोरदार पंचकल्याणक हुया । सेठजी ने दिल खोलकर खर्च किया ।
अन्त में 'अब आप मुझसे एक बार और लोभी कहिये' - कहकर सेठ साहब पंडितजी की ओर देखकर मुस्कुराने लगे ।
तब पंडितजी ने कहा - 'लोभी, लोभी और महालोभी ।'
क्यों और कैसे ? ऐसा पूछने पर वे कहने लगे - इसलिए कि जब आपसे यह धन यहाँ न भोगा जा सका तो ग्रगले भव में ले जाने के लिए यह सब कुछ कर डाला । अगले भव तक के लिए भांगों का इन्तजाम करने वाले महालोभी नही तो क्या निर्लोभी होंगे ?
स्वर्गादि के लोभ में धर्म के नाम पर सब कुछ करना यद्यपि लोभ ही है, तथापि ऐसे लोभी जगत में धर्मात्मा - से दिखते हैं ।
प्राचार्यो ने तो मोक्ष के चाहने वालों को भी लोभियों में ही गिना है; क्योंकि आखिर चाह लोभ ही तो है, चाहे किसी की भी क्यों न हो ।
प्राचार्य परमेष्ठी का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पंडित टोडरमलजी ने 'धर्म के लोभी' शब्द का भी प्रयोग किया है, जो इसप्रकार है :
"कदाचित् धर्म के लोभी अन्य जीव - याचक-उनको देखकर राग अंश के उदय से करुणाबुद्धि हो तो उनको धर्मोपदेश देते हैं ।'
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प्राचार्य प्रमतचन्द्र ने ज्ञेय के लोभियों की भी चर्चा की है ।'
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' मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ४
२ समयसार गाथा १५ को प्रात्मख्याति टीका मे