________________
५६ धर्म के दशलक्षरण
मन-वचन-काय में भी वास्तविक एकरूपता आत्मा में उत्पन्न सरलता के परिणाम स्वरूप आती है । 'मैं मन को पवित्र रखूं, उसमें कोई बुरी बात न आने दूं' - इसप्रकार के विकल्पों से प्रार्जवधर्म प्रकट नहीं होता । वस्तु के सही स्वरूप को जाने-माने बिना वीतरागी सरलतारूप आर्जवधर्म प्रकट नहीं किया जा सकता । श्रार्जवस्वभावी आत्मा के आश्रय से ही मायाचार का प्रभाव होकर वीतरागी सरलता प्रकट होती है ।
क्रोध और मान के समान माया भी चार प्रकार की होती है :१. अनंतानुबंधीमाया, २. अप्रत्याख्यानावरणमाया ३. प्रत्याख्यानावरणमाया और ४. संज्वलनमाया ।
प्रतानुबंध माया का प्रभाव प्रात्मानुभवी सम्यग्दृष्टि के ही होता है । सम्यग्दर्शन प्राप्त किये विना अनंत प्रयत्न करने पर भी अनंतानुबंधीमाया का प्रभाव नहीं किया जा सकता तथा जब तक अनंतानुबंधीमाया है तब तक नियम से चारों प्रकार की मायाकषायें विद्यमान हैं, क्योंकि सर्वप्रथम अनंतानुबंधीमाया का ही प्रभाव होता है ।
शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि सम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी कषायों, अणुव्रती के प्रप्रत्याख्याणावररण कषायों, महाव्रती के प्रत्याख्यानावरण कषायों एवं यथाख्यातचारित्र वालों के संज्वलन कषायों का प्रभाव होता है । उक्त भूमिकाओं के पूर्व इन कषायों का प्रभाव सम्भव नहीं है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि यदि कषायों का प्रभाव करना है तो उसका उपाय कषायों की तरफ देखना नहीं और न उन वस्तुओं की ओर देखना ही है जिनके लक्ष्य से ये कषायें उत्पन्न होती हैं; वरन् अकषायस्वभावी अपनी आत्मा की ओर देखना है; अपनी आत्मा को जानना, मानना और अनुभव करना है; आत्मा में ही जम जाना, रम जाना, समा जाना है ।
अपने को जानने-मानने वाले एवं अपने में ही निमग्न, वीतरागी सरलता से सम्पन्न संतों को नमस्कार करते हुए इस पवित्र भावना के साथ कि जन-जन प्रकषायस्वभावी आत्मा का आश्रय लेकर उत्तम आर्जवधर्म प्रकट करें, आर्जवधर्म की चर्चा से विराम लेता हूँ ।