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१८४0 धर्म के दशलक्षारण
* श्री अगरचन्दजी नाहटा, बीकानेर (राजस्थान)
प्रात्मधर्म में जबसे दशलक्षणों सम्बन्धी भारिल्लजी की लेखमाला प्रकाशित होने लगी मैं रुचिपूर्वक उसे पढ़ता रहा। डॉ० भारिल्ल के मौलिक चिन्तन से प्रभावित भी हुमा । उन्होंने धर्म के दशलक्षणों के सम्बन्ध में अपने विचार प्रगट किये हैं, अन्य कई बातें विचारोत्तेजक व मौलिक हैं । अब तक इन लक्षणों के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा व लिखा जाता रहा है, पर मौलिक चिन्तन प्रस्तुत करना सबके वश की बात नहीं है । डॉ० भारिल्ल में जो प्रतिभा और सूझ-बूझ है उसका प्रतिफलन इस विवेचन में प्रगट हुपा है। प्राशा है इससे प्रेरणा प्राप्त कर अन्य विद्वान भी नया चिन्तन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। डॉ० भारिल्ल ने जो प्रश्न उपस्थित किये हैं वे बहुत ही विचारणीय व मननीय हैं। धर्म और अध्यात्म के सम्बन्ध में उनका चिन्तन
और भी गहराई में जावे और वे मौलिक तथ्य प्रकाशित करते रहें, यही शुभ कामना है। प्रस्तुत ग्रंथ का अधिकाधिक प्रचार वांछनीय है। प्रकाशन बहुत
सुन्दर हुआ है और मूल्य भी उचित रखा गया है। -अगरचंद नाहटा * श्री अक्षयकुमारजी जैन, भूतपूर्व सम्पादक 'नवभारत टाइम्स', दिल्ली
......"पुस्तक बहुत उपयोगी और मामयिक है। सीधी-सादी भाषा मे धर्म के दशलक्षणों का सुन्दर विवेचन डॉ० भारिल्ल ने किया है। मैं पाशा करता हूं कि इस पुस्तक का अधिकाधिक प्रचार होगा जिसमें सामान्यजन को लाभ पहुंचेगा।
-अक्षयकुमार जैन * पं० शानचंदजी 'स्वतंत्र', शास्त्री, न्यायतीर्थ, गंजबासौदा (विदिशा - म०प्र०)
डॉ० भारिल्लजी जन-जगत के बहुचित, बहुप्रसिद्ध, उच्चकोटि के विद्वान हैं। विद्वता के साथ-साथ आप प्रवर सुवक्ता, कुशल पत्रकार, ग्रंथ निर्माता, सुकवि भी हैं । दशलक्षण धर्म पर अनेक मुनियो, विद्वानों एवं त्यागियों ने छोटे-बड़े ग्रंथ एवं पुस्तकें लिखी है, पर उन सब में डां० भारिल्लजी द्वारा लिखित "धर्म के दशलक्षण" अथ सर्वोपरि है। इसमें प्राध्यात्मिक विद्या (ब्रह्म विद्या) के आधार पर तात्त्विकी सैद्धान्तिक विवेचना की है। भाषा प्रांजल, सरल, सुबोध एवं सुरुचिपूर्ण है। प्राप कोई भी चेप्टर लेकर बैठ जाइए, जब तक पूरा न पढ़ लेंगे तब तक मन मे अतृप्ति-सी बनी रहती है । इसी का नाम सत्-साहित्य है। आपकी यह सुन्दर, नूतन, मौलिक रचना पठनीय
तो है ही. पर मनुभवन और मन्थन की भी वस्तु है। - ज्ञानचंद जैन 'स्वतंत्र' * ०५० माणिकचंदजी भोसीकर, बाहुबली (कुंभोज), संपादक 'सन्मति' (मराठी)
. "पापके इस ग्रंथ में धर्मों के लक्षणों का प्राविष्कार करते समय जिस मनौपचारिक, शुद्ध, तत्त्वनिरूपण पद्धति का प्रवलब किया गया वह तलस्पर्शी