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क्षमावाणी 0 १७९ यहाँ आप कह सकते हैं कि स्वयं से क्या क्षमा मांगना और स्वयं को क्षमा करना भी क्या ? पर भाई साहब ! आप यह क्यों भूल जाते हैं कि क्या आपने अपने प्रति कम अपराध किए हैं ? कम अन्याय किये हैं ? क्या अपने प्रति आपने कुछ कम क्रोध किया है ? क्या आपने अपना कुछ कम अपमान किया है ? इस तीनलोक के नाथ को विषयों का गुलाम और दर-दर का भिखारी नहीं बना दिया है ? इसे अनंत दुःख नहीं दिये हैं ? क्या इसकी आपने आज तक सुध भी ली है ?
ये हैं वे कुछ महान अपराध जो आपने अपनी आत्मा के प्रति किए हैं और जिनकी सजा आप स्वयं अनंतकाल से भोग रहे हैं। जब तक आप स्वयं अपने आत्मा की सुध-बुध नहीं लेंगे, उसे नहीं जानेंगे, नहीं पहिचानेंगे, उसमें ही नहीं जम जायेंगे, नहीं रम जायेंगे, तब तक इन अपराधों और अशान्ति से मुक्ति मिलने वाली नहीं है।
निजात्मा के प्रति अरुचि ही उसके प्रति अनन्त क्रोध है। जिसके प्रति हमारे हृदय में अरुचि होती है, उसकी उपेक्षा हमसे सहज ही होती रहती है। अपनी आत्मा को क्षमा करने और उससे क्षमा माँगने का आशय मात्र यही है कि हम उसे जानें, पहिचानें और उसीमें रम जांय । स्वयं को क्षमा करने और स्वयं से क्षमा मांगने के लिए वागी की औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है। निश्चयक्षमावारणी तो स्वयं के प्रति सजग हो जाना ही है, उसमें पर की अपेक्षा नहीं रहती। तथा आत्मा के आश्रय से क्रोधादिकषायों के उपशान्त हो जाने से व्यवहारक्षमावाणी भी सहज ही प्रस्फुटित होती है।
अतः दूसरों से क्षमायाचना करने एवं क्षमा करने के साथ-साथ हम स्वयं को भी क्षमाकर स्वयं में ही जम जांय, रम जांय और अनन्त शान्ति के सागर निजशुद्धात्मतत्त्व में निमग्न हो अनन्त काल तक अनन्त आनन्द में मग्न रहें - इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।