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१६८ D धर्म के दशलक्षण शादी के निमंत्रण कार्ड भेजे जाया करते हैं; उसी लिस्ट के अनुसार कर्मचारीगण क्षमावाणी कार्ड भी भेज दिया करते हैं। भेजने वाले को पता ही नहीं रहता कि हमने किस-किस से क्षमायाचना की है।
यही हाल उनका भी रहता है-जिनके पास वे कार्ड पहँचते हैं। उनके कर्मचारी प्राप्त कर लेते हैं । यदि कभी फुर्सन हुई तो वे भी एक निगाह डाल लेते हैं कि किन-किन के क्षमावाणी कार्ड पाये हैं। उनमें क्या लिखा है, यह पढने का प्रयत्न वे भी नहीं करते । करें भी क्यों ? क्या कार्ड डालने वाले को भी पता है कि उसमें क्या लिखा है ? क्या उसने भी वह कार्ड पढ़ा है ? लिखने की बात तो बहुत दूर ।
बाजार से बना-बनाया ड्राफ्ट और छपा-छपाया कार्ड लाया गया है, पते अवश्य लिखने पड़े हैं। यदि वे भी किसी प्रकार छपेछपाये मिल जाते होते तो उन्हें भी लिखने का कष्ट कौन करता? कदाचित् यदि उसमें प्रेस की गलती से गालियाँ छप जावे तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं है। चिन्ता तो तब हो जब कोई उसे पढ़े। जब उसे कोई पढने वाला ही नहीं-सब उसका कागज, प्रिंटिंग, गेट प्रप ही देखेंगे, फिर चिन्ता किस बात की ?
करे भी क्या? आज का आदमी इतना व्यस्त हो गया है कि उसे कहाँ फुर्सत है - यह सब करने की ? स्वयं पत्र लिखे भी तो कितनों को? व्यवहार भी तो इतना बढ़ गया है कि जिसका कोई हिसाब नहीं । बस सब-कुछ यों ही चल रहा है ।
क्षमायाचना जो कि एकदम व्यक्तिगत चीज थी, आज बाजारू बन गई है । क्षमायाचना या क्षमाकरना एक इतना महान कार्य है, इतना पवित्र धर्म है कि जो जीव का जीवन बदल सकता है; बदल क्या सकता है, सहीरूप में क्षमा करने और क्षमा माँगनेवाले का जीवन बदल जाता है । पर न मालूम आज का यह दोपाया कैसा चिकना घड़ा हो गया है कि इस पर पानी ठहरता ही नहीं। इसकी ‘कारी कामरी' पर कोई दूसरा रंग चढ़ता ही नहीं।
बड़े-बड़े महापर्व पाते हैं, बड़े-बड़े महान संत पाते हैं, और यों ही चले जाते हैं; उनका इस पर कोई असर नहीं पड़ता। यह बराबर अपनी जगह जमा रहता है। इसने बीसों क्षमावाणी मना डाली, फिर भी अभी बीस-बीस वर्ष पुरानी शत्रुता वैसी की वैसी कायम है, उसमें जरा भी तो हीनता नहीं पाई है।