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१५६ धर्म के दशलक्षरण
बराबर एवं एक-सा है, जबकि अन्य इन्द्रियों के साथ ऐसा नहीं है । प्रखण्ड पद की प्राप्ति के लिए प्रखण्ड इन्द्रिय को जीतना आवश्यक है ।
जितने क्षेत्र का स्वामित्व या प्रतिनिधित्व प्राप्त करना हो उतने क्षेत्र को जीतना होगा; ऐसा नहीं हो सकता कि हम जीतें राजस्थान को और स्वामी बन जायें पूरे हिन्दुस्तान के । हम चुनाव लड़ें नगरनिगम का और बन जायें भारत के प्रधानमंत्री । भारत का प्रधानमंत्री बनना है तो लोकसभा का चुनाव लड़ना होगा और समस्त भारत में से चुने हुए प्रतिनिधियों का बहुमत प्राप्त करना होगा । ऐसा नहीं हो सकता हम जीतें खण्ड इन्द्रियों को और प्राप्त कर लें अखण्ड पद को । प्रखण्ड पद को प्राप्त करने के लिये जिसमें पांचों ही इन्द्रियाँ गर्भित हैं ऐसी प्रखण्ड स्पर्शन-इन्द्रिय को जीतना होगा ।
यही कारण है कि प्राचार्यों ने प्रमुखरूप से स्पर्शन - इन्द्रिय के जीतने को ब्रह्मचर्यं कहा है ।
रसनादि चार इन्द्रियाँ न हों तो भी सांसारिक जीवन चल सकता है, पर स्पर्शन - इन्द्रिय के बिना नहीं । आँखें फूटी हों, कान से कुछ सुनाई नहीं पड़ता हो, तो भी जीवन चलने में कोई बाधा नहीं; पर स्पर्शन-इन्द्रिय के बिना तो सांसारिक जीवन की कल्पना भी सम्भव नहीं है ।
ख-कान-नाक के विषयों का सेवन तो कभी-कभी होता है, पर स्पर्शन का तो सदा चालू ही है । बदबू आवे तो नाक बन्द की जा सकती है, तेज आवाज में कान भी बन्द किये जा सकते हैं । आँख का भी बन्द करना सम्भव है । इसप्रकार आँख, नाक, कान बन्द किये जा सकते हैं, पर स्पर्शन का क्या बन्द करें ? वह तो सर्दी-गर्मी, रूखाचिकना, कड़ा-नरम का प्रनुभव किया ही करती है ।
रसना का आनन्द खाते समय ही आता है । इसीप्रकार धारण का सूंघते समय, चक्षु का देखते समय तथा कर का मधुर वाणी सुनते समय ही योग होता है; पर स्पर्शन का विषय तो चालू ही है ।
अतः स्पर्शन-इन्द्रिय क्षेत्र से तो प्रखण्ड है ही, काल से भी प्रखण्ड है । शेष चार इन्द्रिय न क्षेत्र से प्रखण्ड हैं, न काल से ।
चारों इन्द्रियों के कालसंबंधी खण्डपने एवं स्पर्शन के प्रखण्डपने का एक कारण और भी है। वह यह कि स्पर्शन- इन्द्रिय का साथ तो