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________________ १५४ 0 धर्म के दशलक्षण यदि हम पंचेन्द्रिय के विषयों में निर्बाध प्रवृत्ति करते रहें और मात्र स्त्री-संसर्ग का त्याग कर अपने को ब्रह्मचारी मान बैठें तो यह एक भ्रम ही है। तथा यदि स्त्री-संसर्ग के साथ-साथ पंचेन्द्रिय के विषयों को भी बाह्य से छोड़ दें, गरिष्ठादि भोजन भी न करें; फिर भी यदि प्रात्मलीनतारूप ब्रह्मचर्य अन्तर में प्रकट नहीं हया तो भी हम सच्चे ब्रह्मचारी नहीं हो पावेंगे । अतः प्रात्मलीनतापूर्वक पंचेन्द्रिय के विपयों का त्याग ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। यद्यपि शास्त्रों में प्राचार्यों ने भी ब्रह्मचर्य की चर्चा करते हए स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय-त्याग पर ही अधिक बल दिया है, कहीं-कहीं तो रसनादि इन्द्रियों के विपयों के त्याग की चर्चा तक नहीं की है; तथापि उसका अर्थ यह कदापि नहीं कि उन्होंने रमनादि चार इन्द्रियों के विषयों के सेवन को ब्रह्मचर्य का घातक नहीं माना, उनके सेवन की छूट दे रखी है। जब वे स्पर्शन-इन्द्रिय को जीतने की बात करते हैं तो उनका आशय पांचों इन्द्रियों के विषयों के त्याग मे ही रहता है, क्योंकि स्पर्शन में पांचों इन्द्रियाँ गभित हैं । ग्राग्विर नाक, कान, आँखें शरीररूप स्पर्शनेन्द्रिय के ही तो अंग हैं। म्पर्शन-इन्द्रिय माग ही शरीर है, जबकि शेष चार इन्द्रियाँ उमके ही अंश (Parts) हैं । म्पर्णन इन्द्रिय व्यापक है, शेष चार इन्द्रियाँ व्याप्य हैं। जैसे भारत कहने में राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र आदि सारे प्रदेश आ जाते हैं, पर राजस्थान कहने में पूग भाग्न नही प्राता; उसीप्रकार शरीर कहने में आँख, कान, नाक पा जाते है, आँख-कान कहने में पूग शरीर नहीं आता।। __ इसप्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय का क्षेत्र विस्तृत और अन्य इन्द्रियों का संकुचित है। जिसप्रकार भारत को जीत लेने पर सभी प्रान्त जीत लिये गयेऐसा मानने में कोई ग्रापत्ति नहीं, पर राजस्थान को जीतने पर माग भारत जीत लिया - ऐसा नहीं माना जा सकता है। इसीप्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय को जीन लेने पर मभी इन्द्रियाँ जीत ली जाती हैं, पर रमनादि के जीतने परम्पर्शन-इन्द्रिय जीत ली गयी- ऐमा नहीं माना जा सकता। अतः यह कहना अनुचिन नहीं कि स्पर्शन-इन्द्रिय को जीतने वाला ब्रह्मचारी है, पर उक्त कथन का प्राशय पंचेन्द्रियों को जीतने से
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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