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१४८ धर्म के दशलक्षरण
कहता है तुम्हें चोरों से क्या, तुम तो अपनी इच्छाओं को त्यागो अथवा सीमित करो ।
समाजवादी दृष्टिकोरण में परिग्रह को सीमित करने की बात तो कुछ बैठ भी सकती है, पर परिग्रह त्याग की बात कैसे बैठेगी ? क्या कोई समाजवादी यह भी चाहता है कि सम्पूर्ण परिग्रह त्याग दिया जाय और सभी नग्न दिगम्बर हो जायें ? नहीं, कदापि नहीं । पर अपरिग्रह तो पूर्णतः त्याग का ही नाम है, सीमित परिग्रह रखने को परिग्रह - परिमारण कहा जाता है, अपरिग्रह नहीं ।
यहाँ जिस आकिंचन्यधर्मरूप अपरिग्रह की बात चल रही है, वह नो नग्न दिगम्बर मुनिराजों के ही होता है । यदि सबके पास मोटरकार हो जायगी तो क्या नग्न दिगम्बर मुनिराज को मोटर कार में वैटने में आपत्ति नहीं होगी ? यदि समाजवाद ही अपरिग्रह है तो फिर मुनिराज को भी कार रखने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । अथवा रेल, मोटर, बस आदि जो सवारी जनसाधारण को आज भी उपलब्ध हैं उनमें भी अपरिग्रही मुनिराज क्यों नहीं बैठते हैं ? इससे स्पष्ट है कि समाजवाद से अपरिग्रह का दृष्टिकोण एकदम भिन्न है ।
अपरिग्रह का उत्कृष्ट रूप नग्न दिगम्बर दशा है जो कि समाजवाद का आदर्श कभी नहीं हो सकता । समाजवाद की समस्या भोगसामग्री के समान वितरण की है और अपरिग्रह का अन्तिम उद्देश्य भोग - सामग्री और भोग के भाव का भी पूर्णतः त्याग है ।
यहाँ समाजवाद के विरोध या समर्थन की बात नहीं कही जा रही है, अपितु अपरिग्रह और समाजवाद के दृष्टिकोण में मूलभूत अन्तर क्या है - यह स्पष्ट किया जा रहा है ।
समाजवाद में क्रोधादिरूप अन्तरंग परिग्रह और धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह के पूर्णतः त्याग के लिए भी कोई स्थान नहीं है, जबकि अपरिग्रह में उक्त दोनों बातें ही मुख्य हैं । अतः यह निश्चिन्त होकर कहा जा सकता है कि समाजवाद को ही अपरिग्रह कहने वाले समाजवाद का सही स्वरूप समझते हों या नहीं; पर अपरिग्रह का स्वरूप उनकी दृष्टि में निश्चितरूप से नहीं है ।
यद्यपि परिग्रह सबसे बड़ा पाप है, जैसाकि पहले सिद्ध किया जा चुका है; तथापि जगत में जिसके पास अधिक बाह्य परिग्रह देखने में माता है, उसे पुण्यात्मा कहा जाता है । शास्त्रों में भी कहीं कहीं उसे