________________
१४ धर्म के दशललारण परिमित होते हैं । इसप्रकार उसे अपना मानना छोड़ने मात्र से बाह्य परिग्रह नहीं छूटता, अपितु तत्सम्बन्धी राग छूटने से छूटता है ।
देह और मकान की स्थिति में अन्तर है। देह से तो राग छूट जाने पर भी देह नहीं छूटती, पर मकान से राग छूट जाने पर मकान अवश्य ही टूट जाता है। पूर्ण वीतरागीसर्वज्ञ भी तेरहवे-चौदहवें गुणस्थान में सदेह होते हैं, पर मकानादि बाह्य पदार्थों का संयोग छठवें सातवें गुणस्थान में भी नहीं होता।
जैनदर्शन का अपरिग्रह सिद्धान्त समझने के लिए गहराई में जाना होगा। ऊपर-ऊपर से विचार करने से काम नहीं चलेगा।
निश्चय से तो मकानादि छूटे ही हैं । अज्ञानी जीव ने उन्हें अपना मान रखा है, वे उसके हए ही कब हैं ? यह अज्ञानी जीव अपने अज्ञान के कारण स्वयं को उनका स्वामी मानता है, पर उन्होंने इसके स्वामित्व को स्वीकार ही कहाँ किया? उन्होंने इसे अपना स्वामी कब माना?
यह जीव बड़े अभिमान से कहता है कि मैंने यह मकान पच्चीस हजार में निकाल दिया। पर विचार तो करो कि इसने मकान को निकाला है या मकान ने इसे ? मकान तो अभी भी अपने स्थान पर ही खड़ा है। स्थान तो इसी ने बदला है।
मकानादि परपदार्थों को अपना मानना मिथ्यात्व नामक अंतरंग परिग्रह है, और उनसे रागद्वेषादि करना-क्रोधादिरूप अन्तरंग परिग्रह हैं; मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं । परपदार्थों को मात्र अपना मानना छोड़ने से बहिरंग परिग्रह नहीं छूटता, अपितु उन्हें अपना मानने के साथ उनसे रागादि छोड़ने से छूटता है।।
पर इसी परिग्रही वरिणक समाज ने अपरिग्रही जिनधर्म में भी रास्ते निकाल लिए हैं। जिसप्रकार समस्त धन का मालिक एवं नियामक स्वयं होने पर भी राज्य के नियमों से बचने के लिए आज इसके द्वारा अनेक रास्ते निकाल लिए गए हैं-दूसरे व्यक्ति के नाम सम्पत्ति बताना, नकली संस्थाएँ खड़ी कर लेना आदि । उसीप्रकार धर्मक्षेत्र में भी यह सब दिखाई दे रहा है-शरीर पर तन्तु भी न रखने वाले नग्न दिगम्बरों को जब अनेक संस्थानों, मन्दिरों, मठों, बसों आदिका रुचिपूर्वक सक्रिय संचालन करते देखते हैं तो शर्म से माथा झुक जाता है।