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कयकच्छोट्यमेवं पुरिसं कट्ठाई गरुयकट्टेणं । कड्ढ्तं अइदुहियं तो देवी भणइ नरनाहं ॥१७॥ | सच्चं सुव्वइ एयं मेहेण समा हवंति रायाणो । भरियाई भरंति दढं रित्तं जत्तेण वजंति ॥१८॥
तो भणियं नरवइणा किं एवं ? देवि! तं पयंपेसि ।
अह पभणइ सा पेच्छह किह एसो दुखिओ दमगो ? ॥१९॥ भीसणसरियाकुम्भंतकट्ठकड्ढणकिलेसमुव्वहइ । ता जइ सुहियं एयं करेसि किं पुज्जए न तुह ? ॥२०॥
सद्दाविओ तओ सो नरवइणा पुच्छिओ य कोऽसि तुमं ? ।
किंच किलिस्ससि एवं ? अह सो पभणेइ देव ! अहं ॥२१॥ | मम्मणनामा वणिओ इह वत्थव्वो बलहजुयलकए । एयं च किलेसं अणुहवामि तो भणइ नरनाहो ।२२|| तह देमि बलद्दसयं तो चयसु किलेसमेयमह एसो। पभणइ देव! न याणह अज वि तुज्झे मह जे गरुयकिलेसेणं धणकोडीओ मए समजेउं । पडिपुन्नो चिय वसहो एक्को रयणेहिं निम्मविओ ॥२४॥ बीओ उण किंचूणो चिट्ठइ तप्पूरणत्थमहमेवं । विसहेमि किलेसं तो निवेण भणियं मह बलहे ॥२५॥ नियए दंसह तओ देवीए समं घरे निवं नेउं । दंसेइ सो बलद्दे रयणमए तो नराहिवई ॥२६॥ | पभणइ मह भंडारे एकं पि हु नत्थि एरिसं रयणं । तम्हा बीयबलदस्स पूरणे तं चिय समत्थो ॥२७॥
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