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श्रीउपदे- शपदे
रतिसुन्दरीचरितम्
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॥३२२॥
वसंताण पाण। दुवायहयाविना परजणासामन्नो आम
क्खाए ॥४८॥ अन्नदिणे कुरुवइणो महिंदसीहस्स संतिओ ओ । चंदनराहिवपुरओ संपत्तो भणिउमाढत्तो ॥४९॥
संदिलु मह पहुणा अम्हं तुम्हं च पुवपुरिसाणं । इयरजणासामन्नो आसि दढं नेहपडिवंधो ॥५०॥ ते च्चिय सुया सुजाया है ६ चिट्ठति धयब निययवंसग्गे। दुवायहयावि न जे मुयंति पुबिल्लसंबंधं ॥५१॥ सायरनिसायराण महेसिहंडीण मिहिरनलि-
णीणं । दूरेवि वसंताणं पडिवन्नं नन्नहा होइ॥५२॥ किंवा भणउ अन्नं अगन्नसोजण्णमुवहंतस्स । सर्व पओयणं मे कहियवं सबहा तुमए ॥५३॥ अन्नच नवोढा जा सुबइ रइसुंदरी पिया देवी । तं अहं पाणिगं पेससु संमाणिमो जेण । ॥५४॥ जो मन्निज्जइ संयणो तस्स कलत्तंपि गउरवट्ठाणं । जम्हा पुत्तम्मि पिए होइ पियं पुत्तवेढणयं ॥ ५५॥ सोऊण दूयवयणं भणियं चंदेण ईसि हसिऊण । सबस्स जणियपणया भण कस्स न वल्लहा सुयणा ॥५६॥ भत्ती परोवयारो सुसीलया अज्जवं पियालवणं । दक्खिन्नविणयवाया सुयणाण गुणा निसग्गेण ॥ ५७ ॥ ता दूय ! जुत्तमेयं संदिढ अम्ह | तुह नरिंदेण । उत्तमजसा हु सुयणा नियकुलमेरं न लंघंति ॥५८॥ अम्हाणवि कहियवं पओयणं सबमेव जं उचियं । है देवीएपेसणे पुण अजवि न हु अवसरो कोवि ॥ ५९॥ वायापडिवत्तीएवि कलिओ नेहो महिंदसीहस्स । किं बज्झगोर
वेणं पढंति खलु पंडिया जेण ॥ ६० ॥ वझंति मुक्खविहगा नेहविहूणेण वज्झदाणेण । छेयाणं बंधणं पुण नन्नं सब्भावभणियाओ ॥ ६१॥ तहा ॥ वाया सहस्समइया सिणेहनिज्झाइयं सयसहस्सं । सब्भावो सज्जणमाणुसस्स कोडिं विसे सेइ ॥ १२॥ अह भणइ पुणो दूओ देवीदसणसमूसुओ देवो । ता न हु जुत्तं तुम्हंववजणं अन्नहा काउं॥ ६३ ॥ ताव सुहओ गइंदो जामज्जायं धरेइ हिययम्मि । अन्नह रुट्ठो दारुणभयंकरो कस्स नो होइ ? ॥ ६४॥ तुह चेव हियं भणिमो
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