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________________ ( १२०) चौवीस मैं जिनराज कहै राज विराजत प्राज सबै सुख कंधौ । श्री धुमसी कहें वीर जिगिह कौ शासन धर्म सदा चिरनन्दी ॥२॥ इति-चौबीम तीर्थकरी रा सवैया संपूर्ण । लेः- पं. सायजी लिखतं बीकानेर मध्ये सम्बत १७८१ वर्षे मिनी आषाढ़ सुदी : दिने । प्रति पत्र २, पंक्ति १४ अ. १६ [अभय जैन ग्रंथालय] ( ) चौवीशी । रचयिता-गुणविनाम (गोकुत्तचन्द) सं. १७६२ जैसलमेर प्रादि गोकलचन्द कृत चौवीसी । अब मोह तारौ दीनदयाल । सबही मत देखौ मई जिन नित, तुमही नाम रसाल ॥१॥ अ. ॥ यादि अनादि पुरुष हो तुमही, तुमही विष्णु गुपाल । शिव ब्रह्मा तुमही में मर वधै, भाजि गयौ भ्रम जाल ॥ २ ॥ श्राः ।। मोह विकल मूल्यौ भव माहि, फियों अनंता काल । 'गुण विलास' श्री ऋषभ जिगोमर, मेरी कगे प्रतिपाल ।। ३ ॥ या. ।। अन्त संवत सतर बाणवै वरमे, माघ शुक्ल दुतीयाए । जैसलमेर नगर में हरषै, करि पूरन सुख पाए । पाठक श्री सिद्धि वरधन सदगुरु, जिहि विधि राग बताए । 'गुण विलास'पाठक तिहि विध सौं, श्राजिनराज मल्हाए ॥ ५ ॥ इति चौवीम तीरंथकरायां ( स्तवन ) संपूर्ण । लखनक काल - १६वीं शताब्दी । प्रति - १ पत्र । पंक्ति १६ । अक्षर ५४ । २ पत्र २४ को संग्रह प्रति में [स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ] (१०) चौवीशी जिन रत्न सूरि धादि राग वेमास तथा श्रीराग | समरि समरि मन प्रथम जिन ।
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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