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आयारदसा
कप्पइ से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव - रायहाणिए वा उत्ताणस्स पासिल्लगस्स वा नेसिज्जयस्स वा ठाणं ठाइत्तए ।
तत्थ से दिव्व - माणुस्स - तिरिक्खजोणिया उवसग्गा समुप्पज्जेज्जा,
ते णं उवसग्गा पर्यालिज्ज वा पवडेज्ज वा,
णो से कप्पइ पर्यात्तिए वा पवडित्तए वा ।
तत्य णं उच्चार- पासवणेणं उव्वाहिज्जा,
णो से कप्पइ उच्चार- पासवणं उगिहित्तए वा ।
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कप्पइ से पुव्व पडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चार- पासवणं परिठवित्तए, अहाविहिमेव ठाणं ठात्तए ।
एवं खलु पढमं सत्त-राईदियं भिक्खु-पडिमं
अहासु जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ।
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शारीरिक सुषमा एवं ममत्वभाव से रहित प्रथम सप्तरात्रिदिवा मिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्न अनगार... यावत् '... शारीरिक क्षमता से उन्हें झेलता है । निर्जल चतुर्थभक्त (उपवास) के पश्चात् भक्त-पान ग्रहण करना कल्पता है ।
ग्राम यावत्" राजधानी के बाहिर ( उक्त प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार को) उत्तानासन, पाश्र्वासन या निषद्यासन इन तीन आसनों में से किसी एक आसन से कायोत्सर्ग करके स्थित रहना चाहिए ।
वहाँ (प्रतिमा आराधन काल में) यदि दिव्य, मानुषिक या तिर्यग्योनिक उपसर्ग हों और वे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित करें तो उसे विचलित होना या पतित होना नहीं कल्पता है ।
यदि मल-मूत्र की बाधा उत्पन्न हो तो उसे रोकना नहीं कल्पता है, किन्तु पूर्वं प्रतिलेखित भूमिपर मल-मूत्र त्यागना कल्पता है ।
पुनः यथाविधि अपने स्थान पर आकर उसे कायोत्सर्ग कर स्थित रहना चाहिए ।
इस प्रकार वह अनगार प्रथम सात दिन-रात की भिक्षु प्रतिमा का यथासूत्र ....यावत् ३ .. ...जिनाज्ञा के अनुसार ( बिना किसी अन्तर या व्यवधान के ) पालन करने वाला होता है ।
१ दशा० ७, सूत्र ३ के समान ।
२
दशा० ७, सूत्र ७ का एक अंश । ३ दशा० ७, सूत्र २५ के समान ।