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आयारसा
और पोषधोपवास का सम्यक् प्रकार से प्रतिपालक होता है, वह सामायिक और देशावकाशिक शिक्षावत का भी सम्यक् परिपालक होता है। किन्तु चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी इन तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् परिपालक नहीं होता। प्रोपध या पौषध चार प्रकार के कहे गये हैंआहार प्रोषध, शरीर-सत्कारप्रोषध, अव्यापारप्रोषध और ब्रह्मचर्यप्रोषध ।
(इस प्रतिमा के पालन का उत्कृष्ट काल तीन मास है उसके पश्चात् वह चौथी प्रतिमा को स्वीकार करता है।)
यह तीसरी उपासक प्रतिमा है ।
सूत्र २०
(४) अहावरा चउत्था उवासग-पडिमासव्व-धम्म-रुई यावि भवइ ।
तस्स णं बहूई सोलवय-गुणवय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोयवासाइं सम्म पट्टवियाई भवंति।
से णं सामाइयं देसावगासियं सम्मं अणुपालित्ता भवइ ।
से गं चउद्दसट्टमुद्दिष्ट-पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालित्ता भव।
से णं एग-राइयं उवासग-पडिमं नो सम्म अणुपालिता भवइ । से तं चउत्था उवासग-पडिमा। (४)
अब चौथी उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैं
वह सर्वधर्मरुचिवाला यावत् पूर्वोक्त तीनों प्रतिमाओं का यथावत् अनुपालन करता है। वह नियम से बहुत से शीलवत, गुणवत, पाप-विरमण, प्रत्याख्यान, और पौषधोपवासों का सम्यक् परिपालक होता है, वह सामायिक और देशावकाशिक शिक्षाव्रतों को भी सम्यक् प्रकार से पालन करता है । वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् परिपालन करता है। किन्तु एक रात्रिक उपासक प्रतिमा का सम्यक् परिपालन नहीं करता है। __(इस प्रतिमा का उत्कृष्ट काल चार मास है। उसके पश्चात् वह पांचवी प्रतिमा को स्वीकार करता है ।)
यह चौथी उपासक-प्रतिमा है ।