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आयारदसा
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वैर-बहुल, दम्ग - निकृति - साति बहुल, आशातना - बहुल अयश-बहुल, अप्रतीति- बहुल होता हुआ, प्राय: स प्राणियों का घात करता हुआ कालमास में काल (मरण) करके इस भूमि तल का अतिक्रमण कर नीचे नरक भूमि-तल में जाकर प्रतिष्ठित हो जाता है ।
सूत्र १३
ते णं णरगा
अंतो बट्टा, वाहि चउरंसा, अहे - खुरप्पसंठाण - संठिआ, निच्चंधकार-तमसा, ववगय-गह-चंद - सूर-णक्खत- जोइस पहा,
मेद-वसा - मंस - रुहिर - पूय - पडल- चिक्खल - लित्ताणुलेवणतला,
असुहविस्सा, परमदुभिगंधा,
काय - अगणि-वण्णाभा, कक्खड फासा दुरहियासा ।
असुभा नरगा ।
असुभा नरएस वेयणा ।
नो चेव णं णरएसु नेरइया निद्दायंति वा, पयलायंति वा, सुइं वा, रई वा, घिइं वा, मई वा उवलभंति ।
ते णं तत्य
उज्जलं, विउलं, पगाढं, कक्कसं, कडुयं, चंडं, दुक्खं, दुग्गं, तिक्खं, तिव्वं दुरहियासं
नए रइया नरय-वेयणं पच्चणुभवमाणा विहति ।
वे नरक भीतर से वृत्त (गोल) और वाहिर चतुरस्र ( चोकोण) हैं, नीचे क्षुरप्र (क्षुरा- उस्तरा ) के आकार से संस्थित है, नित्य घोर अन्धकार से व्याप्त हैं, और चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र इन ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं, उन नरकों का भूमितल मेद - वसा ( चर्वी) मांस, रुधिर, पूय ( विकृत रक्त - पीव), पटल (समूह) सी कीचड़ से लिप्त अतिलिप्त है । वे नरक मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थों से भरे हुए हैं, परम दुर्गन्धमय हैं, काली या कपोत वर्ण वाली अग्नि के वर्ण जैसी आमा वाले हैं, कर्कश स्पर्श वाले हैं, अत: उनका स्पर्श असह्य है, वे नरक अशुभ हैं अतः उन नरकों में वेदनाएं भी अशुभ ही होती हैं । उन नरकों में नारकी न निद्रा ही ले सकते हैं और न ऊंघ ही सकते हैं । उन्हें स्मृति, रति, धृति और मति उपलब्ध नहीं होती है । वे नारकी उन नरकों में उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड, रौद्र, दुःखमय तीक्ष्ण, तीव्र दु:सह नरक - वेदनाओं का प्रतिसमय अनुभव करते हुए विचरते हैं ।