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छेदसुत्ताणि जैसे जले हुए वीजों से पुनः अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, इसी प्रकार कर्मवीजों के जल जाने पर भवरूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं ॥१५॥
औदारिक शरीर का त्यागकर, तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्म का छेदन कर केवली भगवान कर्म-रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं ॥१६॥
हे आयुष्मान् शिष्य ! इस प्रकार (समाधि के भेदों को) जानकर राग और द्वाप से रहित चित्त को धारण कर शुद्ध श्रेणी (क्षपक-श्रेणी) को प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त करता है, अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है ॥१७॥
-ऐसा मैं कहता हूँ। पाँचवों चित्तसमाधिस्थान दशा समाप्त ।