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आयारदसा
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३१ शैक्ष, यदि रात्निक साधु के शय्या संस्तारक का (असावधानी से ) पैर से स्पर्श हो जाने पर हाथ जोड़कर बिना क्षमा-याचना किये चला जाय तो उसे आशातना दोष लगता है ।
३२ शैक्ष, रानिक के शय्या -संस्तारक पर खड़ा होवे, बैठे या लेटे तो उसे आशातना दोष लगता है ।
३३ शैक्ष, रात्निक से ऊंचे या समान आसन पर खड़ा हो या लेटे तो उसे आशातना दोष लगता है ।
सूत्र ३
एयाओ सलु ताओ थेरेहि भगवंतहि तेत्तीसं आसायणाओ पण्णत्ताओ । -त्ति बेमि । स्थविर भगवन्तों ने निश्चय से ये पूर्वोक्त तेतीस आशातनाएं कहीं हैं । - ऐसा मैं कहता हूं ।
इति तइया आसायणा दसा समत्ता ।
तीसरी दशा का सारांश
[] आशातना का अर्थ है -- विपरीत प्रवर्तन, अपमान या तिरस्कार । इस शब्द को निरुक्ति की गई है - 'ज्ञान-वर्शनं शातयति खण्डयति तनुतां नयतीत्याशातना' अर्थात् जो ज्ञान और दर्शन का खण्डन करे, उनको लघु करें, उसे आशातना कहते हैं । शास्त्रों में अनेक आशातनाएं वतलाई गई हैं । उनमें से यहां पर केवल वे ही आशातनाएं कहो गई हैं, जिनसे रत्नाधिक का अधिक अविनय अवज्ञा या तिरस्कार संभव है । रत्नाधिक शब्द का अर्थ है - रत्नों से - ज्ञान-दर्शनचारित्र रूप गुण-मणियों से जो बड़ा है, दीक्षा में जो बड़ा है, ऐसा साधु | इस पद में आचार्य - उपाध्याय आदि सभी का समावेश है । शैक्ष शब्द का अर्थ शिक्षाशील शिष्य होता है । पर प्रकृत में जो दीक्षा में छोटा है, उसे शैक्ष कहा गया है । दोनों शब्द परस्पर सापेक्ष हैं। शैक्ष का कर्तव्य है कि अपने दैनिक व्यवहार में रत्ना धिक का सर्व प्रकार से विनय करें । उसे चलते समय रत्नाधिक के न आगे चलना चाहिए, न वरावर चलना चाहिए और न विलकुल समीप ही चलना चाहिए । इसी प्रकार खड़े होने और बैठते समय भी ध्यान रखना आवश्यक है, अन्यथा वह आशातना का भागी होता है । नीहार के समय यदि कारण वश एक ही पात्र में जल ले जाया गया हो तो रत्नाधिक के पश्चात् ही