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तक देखकर
खींचकर कठार मस्तक
तृतीय अंक। राज मोहकी सेनामें हम दोनों योद्धाओंके रहते हुए दंभ, असत्य, कलि, क्लेश, और व्यसनादि सुभटोंकी कोई आवश्यकता नहीं है। केवल हम ही सब कुछ कर सकनेको समर्थ हैं।" यह 'कहकर उन्होंने विवेकके सिरका छत्र छिन्नभिन्न कर डाला । तब विवेक अपना छत्रशून्य मस्तक देखकर अतिशय कुपित हुआ । उहाने उसी समय प्रविचारवाणको कर्णपर्यंत खींचकर कठोर भावसे ज्यों ही चलाया, त्यों ही उन दोनों पापवृक्षके अंकूरोंका मस्तक घड़से अलग हो गया!
वाग्देवी-बहुत अच्छा हुआ । अस्तु फिर ? मैत्री-अपने पुत्रोंके मरनेके दुःखसे व्याकुल होकर लोभ विवेकके साम्हने आया और
आर्या । चक्रीकी पाई है, उससे महती सुरेशकी लक्ष्मी ।
सो भी करके करगत, फिर तो अहमिंद्रकी लूंगा। ' इस प्रकार वाक्य वाण छोड़ने लगा । यह देख संतोष बोला, लक्ष्मी है क्या पदार्थ ? देख, कहा है कि;अति पुण्यवन्त चक्री नरेश । तिनके हु रही नाहीं हमेश। तो पुण्यहीन जो इतर जीव ।क्यों रहैरमा तिनके सदीव ।।
और भीप्रामा मया चक्रिपदस्य लक्ष्मीरितोपि शृण्वे महतींहि जिष्णोः।
करोति द्राक्तामपि हस्तसंस्थां ततोऽहमिन्द्रप्रभवां च पद्माम् ॥ २-जा सासया ण लच्छी चकहराणं पि पुण्णवंताणं । सा किं बंधे रई उयरजणाणं अपुण्णाणं ॥
(खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाया।)