SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । होओ!! यह क्या करती हो ? दयाकी कुछ प्राणहानि नहीं क्षमा-(सचेत होकर) तत्पश्चात् क्या हुआ? दया-तब भगवान अरहंतदेवने अपनी सर्वज्ञताके बलसे मेरे कष्टको जान लिया । इसलिये तत्काल ही अपने समान गक्तिकी धारण करनेवाली वाग्देवीको भेजा कि, पापिनी हिसा व्याजी दयाका घात करना चाहती है, इसलिये उसे जाकर बचाओ । वह भी बड़ी भारी परोपकारिणी थी । सो भगवानके वचन सुनकर उसी समय आकाशगामिनी विद्यापर आरोहण करके आई । आ. काशमें ठहरकर उसने हिंसापर भयानक दृष्टिपात करके उपदेश रूपी प्रवल बाणको संधाना और पर्वतके शिखरोंको कंपित करने वाली गर्जना की। जिसके सुनते ही वह व्याघ्री मुझे वहीं छोड़कर भाग गई। क्षमा-( हायसे उसके शरीरका मेहपूर्वक स्पर्श करके) वेटी. सचमुच ही तू पुण्यके उदयसे जीवित बची है। दया-पश्चात् हे माता! तेरे इस सुखकारी स्पर्शके समान उस भगवतीके हस्तरूपी अमृतसे मेरे शरीरपर जो दांतोंके घावोंकी बाधा हो रही थी, वह तत्काल ही अच्छी हो गई। क्षमा-वे जिनेन्द्रदेव धन्य है, जिन्होंने मेरी पुत्रीको वढे भारी संकटसे बचा ली। ___ दया-माता! उन्होंने मुझ अकेलीको ही क्या बचाई है । सारे संसारको कष्टसे बचाया है । सुनो, जिस समय कर्मभूमि प्रगट हुई, उस समय भगवान् ऋषभदेवने करुणाभावसे असि
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy