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द्वितीय अक।
३७ [आगे एक स्थानमे ब्रह्माद्वैत अपनी शिष्यमडलीसहित बैठा है] , शान्ति-(गड़े होकर आवर्यसे ) यह कौन दर्शन है ? क्षमा-बेटी! यह ब्रह्माद्वैत दर्शन है।
शान्ति-माता! तो चलो, इसमें भी अपनी प्यारी बहिन दयाका शोध करं। ब्रह्माद्वैत-(अपने शिष्योको पढाता है )
एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन ।
अविद्योद्भूतसंकल्पाझेदवुद्धिः प्रजायते ॥ अर्थात् जितने पदार्थ है, वे सब ब्रह्मस्वरूप हैं । ब्रह्मके अतिरक्त कुछ नहीं है। इस संसारमें एक अद्वितीय ब्रह्म ही है। अनेक कुछ भी नहीं है । जो एक ब्रझसे भिन्न दूसरेकी भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, सो सब अविद्यासे उत्पन्न हुए संकल्पके कारण होती है। सारांग यह है कि, एक ब्रह्म है, दूसरा कुछ नहीं है । जो भेद है, मो अनादि अविद्याजन्य संकल्पसे है, मिथ्या है, यथार्थमें नहीं है । यह ब्राह्मण यह क्षत्री यह वैश्य इत्यादि मानना भ्रम है । ब्रहमके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है । ' शान्ति-मा! यह क्या कहता है कि, एक ब्रह्म है, दूसरा
छ नहीं है । मैं पूंछती हूं कि, वह भेदबुद्धिकी उत्पन्न करनेवाली वविद्या ब्रह्मसे भिन्न है, कि अभिन्न ? यदि भिन्न है, तो द्वैतापत्तिः होती है, अर्थात् ब्रह्मके सिवाय एक दूसरा पदार्थ सिद्ध होता है, जो स्वमतविरोधक है। और यदि अभिन्न है, तो उसे ब्रह्म ही क्यों नहीं कहते ? सर्वथा भेद माननेके समान सर्वथा अभेद मानना भी कल्याणकारी नहीं है । यथार्थमें भेदाभेद पक्ष अर्थात् क