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प्रथम अंक। सब यों ही उत्कंठित हो रहे थे। इतनेपर आप स्वयं दिखानेके लिये उत्सुक है! फिर क्या चाहिये ? कहा भी हैपान करन जाको चहैं, करि अति दूर पयान । घर आयो पीयूप सो, छांडहिं क्यों वुधिवान ॥२॥ (सूत्रधार सभाको हर्षित देखकर नेपथ्यकी ओर देखता है और
नटीको बुलाता है।) सूत्र-आओ! आओ! प्रिये! देखो, तो आज ये सभ्यगण कैसे हर्पित और उपशांतचित्त हो रहे है ?
(नटीका प्रवेश) नटी-लीजिये, मै यह आ गई ! कहिये क्या आज्ञा है ? आपके वचन सुनकर तो मेरे हृदयमें एक आश्चर्य उत्पन्न हुआ है।
सूत्र-कैसा आश्चर्य?
नटी-यही कि, ये सब सभ्यगण नानाप्रकारके बुरे व्यापारोंके भारसे लद रहे हैं, तथा इनका चित्त सदा अपने स्त्री पुत्रोंका मुख निरीक्षण करनेमें उलझा रहता है, फिर भलाँ, ये उपशान्त चित्त कैसे हो गये ?
सूत्रधार-प्रिये ! लोगोंका चित्त खभावसे तो प्रायः शान्त ही रहता है, परन्तु कर्मके कारणसे कभी प्रान्तरूप हो जाता है । पर कभी उपशान्त हो जाता है। तुमने क्या यह नहीं सुना है कि, " जिस रामचन्द्रने अपनी प्यारी स्त्री सीताके मोहसे व्याकुल होकर रावणसे युद्ध किया था, और उसे मारा था, वही १ दूरं गत्वा हि ये लोकाः पीयूपं हि पिपासवः।
गृहागतं हि तत्केपां न भवेत् पेयतास्पदम् ॥