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अथ ग्रन्धप्रशस्ति। मूलसङ्घ ममासाद्य ज्ञानभूपं बुधौतम, दुस्तरं हि भवाम्बोधि सुतरं मन्यते हृदि ॥४॥ तत्पट्टामलभूपणं समभवद्वैगम्बरीये मते । चञ्चद्वहकरः सभातिचतुरः श्रीमत्मभाचन्द्रमाः ॥ तत्पद्देऽजनि वादिवृन्दतिलकः श्रीवादिचन्द्रो यति स्तेनायं व्यरचि प्रबोधतरणिभव्याजसम्बोधनः वसुवेद॑रसान्जाके वर्षे माघे सिताष्टमीदिवसे ।
श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोऽयं वोधसंरम्भः ॥३॥ अर्थात्-श्रीमूलसंघमें एक श्रीज्ञानभूषण नामके आचार्य हुए। जिनको पाकर पंडितजन ससारसमुद्रका तिरना अपन हदयमें बहुत आसान समझने लगे। तात्पर्य यह कि उनके संसर्गसे मोक्ष प्राप्त करना बहुत सहज हो गया । पश्चात् दिगम्बर मतमें उनके पट्टपर निर्मल आभूषणस्वरूप श्रीप्रभाचन्द्राचार्य हुए जो अतिशय समाचतुर थे और अपने करकमलोंको चमकती हुई मयूरपिच्छिसे गोभित रखते थे। फिर इन्हीं प्रभाचन्द्रके पदपर वादिसमूहके तिलकखरूप श्रीवादिचन्द्र यति हुए, जिन्होंने भन्यरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाला यह ज्ञानसूर्योदय नाटक निर्माण किया ॥२॥
संवत् १६४८ की माघसुदी अष्टमीके दिन मधूक नगरम यह अन्य सिद्ध ( सम्पूर्ण) हुआ ।
श्रीगजपथसिद्धक्षेत्रज्येष्ठ कृष्णा ६ श्री वीरनि
अनुवादक---- वणि मवत् २४३४
श्रीनाथूराम प्रेमी