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ज्ञानसूर्योदय नाटक। वाग्देवी-हा। इससे भी अधिक कल्याणस्वरूप वस्तु मेरे पास है । वह मुक्ति है।
पुरुष-यदि ऐसा कोई पद है, तो हे देवि ! वह भी प्रदान, करो । आप सर्वदानसमर्थ हो ।
वाग्देवी-अब तुम अन्तके दो शुक्ल ध्यानोंसे (म्मतिम प्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्नि ) शेप बचे हुए चार तिया कर्मोंका अर्थात् वेदनीय, आयु, नाम गोत्रका, नाग करव मुक्तिको प्राप्त करो।'
पुरुष-जो आज्ञा । ' वाग्देवी-इसी उपायसे अघतिया कोका क्षय करके पर मानन्दको प्राप्त करनेवाला सिद्ध पुरुष इस लोकमें सबको दूर प्रदान करै,
जिनको निर्मल दर्शन लोकालोक विलोकत । ज्ञान अनन्त समस्त वस्तुकह जुगपत निरखत ।। जिनको सुख निरवाधरु. वल सब जग उद्धारक । रक्षा करहु हमारी सो, प्रसिद्ध शिवनायक ।।
[मव जाते है। इति श्रीवादिचन्द्रसूरिविरचिते श्रीज्ञानसूर्योदयनाटके चतुर्थोऽय समार
समाप्तोऽयं ग्रन्थः