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________________ तृतीय अंक। स्यादभेदात्मक विश्वं महासत्तानियोगतः। भेदात्मकं तदेव स्याल्लघुसत्तानियोगतः ॥ यह सुनकर न्यायविद्याने कहा, "हे विरुद्धार्थवादिनि! ऐसा क्यों कहती है कि, विश्व अभेदात्मक है ? जानती नहीं है कि, द्रव्य गुण कर्मादि सब पृथक्त्व गुणके निमित्तसे घट पटके समान जुदे है।" पुरुष-अच्छा फिर ? अष्टगती-मैंने कहापृथत्वकान्तपक्षेऽपि पृथक्त्वादपृथक् तु तौ। पृथत्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो ह्यसौ गुणः ॥ (आ.मी.) अर्थात्-पृथक्त्व एकान्त पक्षमें भी पृथक्त्व गुणसे गुण और गुणी दोनों अपृथक्मृत (एकरूप) अंगीकार करना पड़ेंगे । और यदि उस पृथक्तवसे गुण गुणी भिन्न माने जावेंगे, तो पृथक्त्व गुण ही न रहेगा। क्योंकि वह पृथक्त्व गुण अनेक पदार्थों में रहनेवाला है । और ऐसी अवस्थामें उसे गुण गुणीसे भिन्न भी नहीं कह सकते हैं। क्योंकि ऐसा माननेसे वे खयं सब एकरूप हो जावेगे, अथवा अभावरूप हो जावेंगे । अतएव भेदपक्ष भी कल्याणकारी नहीं है। प्रवोध-बहुत अच्छा कहा! युक्ति और प्रमाणयुक्त वचन ही सुननेमें सुखदाई होते है, विनाप्रमाणके तथा विनायुक्तिके नहीं। १ इमका अर्थ पहले पृष्ठमें लिया जा चुका है। २ नयायिक लोग एक पृथक्त्य गुण मानते हैं, जो सम्पूर्ण पदार्थामें रहता है । इसी गुणके योगसे समनः पदार्थ पृथक् २ रहते हैं।। - -
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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