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[हिन्दी गद्य-निर्माण
कृष्णकन्द, कृष्णकान्ता, विष्णुकान्ता. (फूल) सीतामऊ, सीतावलदी, सीताकुण्ड, सीतामढी, सीता की रसोई, हरिपर्वत, हरि का पत्तन, रामगढ़ रामबाग, रामशिला, रामजी की घोड़ी, हरिपदा (आकाशगंगा), नारायणी, कन्हैया
आदि नगर, नद-नदी, पर्वत फलफूल के सैकड़ों नाम हैं । (जले विष्णुः स्थने विष्णुः) सब स्थान पर विष्णु के नाम ही का सम्बन्ध विशेष है । अाग्रह छोड़ कर तनिक ध्यान देकर देखिये कि विष्णु से भारनवर्प से 'क्या सम्बन्ध है, फिर हमारी वात स्वयं प्रमाणित होती है कि नहीं कि भारतवर्ष का प्रकृतमत वैष्णव ही है।
अब वैष्णवों से यह निवेदन है कि आप लोगों का मत कैसी दृढ भित्ति पर स्थापित है और कैसे सार्वजनीन उदारभाव से परिपूर्ण है यह कुछ कुछ हम आप लोगों को समझा चुके। उमी भाव से श्राप लोग भी उममें स्थिर रहिए, यही कहना है । जिस भाव से हिन्दू मत अव चलता है उस भाव से आगे नहीं चलेगा। अब हम लोगों के शरीर का वल न्यून हो गया, विदेशी शिक्षाओं से मनोवृत्ति वदल गई; जीविका और धन उपार्जन के हेतु अव हम लोगों को पॉच-पाँच छः-छः पहर पसीना चुग्राना पड़ेगा, रेल पर इधर से उधर कलकत्ते से लाहौर और वम्बई से शिमला दौड़ना पड़ेगा. सिविल सर्विस का, बैरिस्टरी का इजिनियरी का इम्तहान देने को विलायत जाना होगा, बिना यह सब किये काम नहीं चलेगा। क्योंकि देखिए, कृस्तान, मुसलमान. पारसी यही हाकिम हुए जाते हैं, हम लोगों की दशा दिन-दिन हीन हुई जाती है। जब पेट भर खाने ही को न मिलेगा तो धर्म कहाँ वाकी रहेगा, इससे जीवमात्र के सहज धर्म उदरपूरण पर अव ध्यान दीजिये। परस्पर का बैर छोड़िए । शैव शाक्त सिक्ख जो हो सब से मिलो । " उपासना एक हृदय की रत्न वस्तु है उसको ार्य क्षेत्र में फैलाने की आवश्यकता नहीं है। वैष्णव, शैव, ब्रह्मा, आर्यसमाजी सव अलग-अलग पतली-पतली डोरी हो रहे हैं, इसी से ऐश्वर्य रूपी मस्त हाथी उनसे नहीं बँधता । इन सब डोरी को एक मे बाँधकर मोटा रस्सा बनाओ तब यह हाथी दिग-दिगंत भागने से रुकेगा । अर्थात् अव वह काल नहीं है कि हम लोग भिन्न-भिन्न