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शकुन्तला नाटक] . . ...
अथवा शुद अशुद को, सोवत को जागंत।
• बंधुश्रा को जैसे लखत, कोई मनुष सुतंत ॥११॥ शकुन्तला-(असगुन देख कर ) हाय ! मेरी दाहिनी आँख क्यों फड़कती है। . गौतमी-दैव कुशल करेगा, तेरे भरता के कुलदेव अमंगलों को मेटि तुझे
। सुख देंगे। .. . .. । 'पुरोहित-(राजा को पतलाकर ) हे तपस्विनी, वर्णाश्रम के प्रतिपाल श्री • महाराज आसन से उठाकर तुम्हारी बाट हेरते है इनकी श्रोरं .. . , देखो। . • शारंगरव-हे ब्राह्मण यह तो बड़ी बड़ाई की बात है, परन्तु हम से पूछो तो ..
यह इनका धर्म ही हैदोहा-फल पाए तरवर झुके, झुकत मेघ जले लाय। ' विभौ पाय सज्जन झुके, यह परकाजि सुभाय ॥१२॥ 'प्रतीहारी-महाराज, ये ऋषि लोग प्रसन्न मुख दीखते हैं इससे मैं जानती हूँ '.. कि कोई कष्ट का काम नहीं लाए। . .. " दुष्यन्त-(शकुन्तमा को भोर देख कर) तो यह भगवती कौन है ? दोहा-घूघट पट की श्राट दे, को ठाड़ी यह बाल । .
पूरो- दीठ पर नहीं जाको, रूप रसाल ॥१८॥ यह तपसिन के बीच में, ऐसी परति लखाय ।
लई मनों कोपल नई, पीरे पातन छाय ॥१८॥ प्रतीहारी--महाराज, इसका वृत्तान्त जानने को तो मेरा जी भी बहुत चाहता
है, परन्तु मेरी बुद्धि काम नहीं करती । हाँ, इतना तो कहूँगी कि
इस भगवती का रूप दर्शन योग्य है। दुष्यन्त-पराई स्त्री को देखना अच्छा नहीं। राकुन्तला- (आप ही आप अपने हृदय पर हाथ रख कर) हे हृदय ! तू ऐसा ' क्यों डरता है, आर्यपुत्र के प्रेम की सुध करके धीरज घर । पुरोहित-(भागे जाकर ) महाराज, इन तपस्वियों का आदर सत्कार