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— शकुन्तला नाटक]' . . . . . . से मेटने योग्य स्थान में बैठता हूँ ! ... ___ कचुकी-जो श्रागा।
.... . . . . . बाहर जाता है] दुष्यन्त - (उठ कर) हे प्रतीहारी, अग्निस्थान की गैल वता। , । प्रतीहारी-महाराज यह गैल है। दुष्यन्त-(इधर-उधर फिर कर अधिकार, के बोझ का दुःख दिखाता हुआ)
___ अपना अपना मनोरथ पाकर सब प्रसन्न हो जाते हैं परन्तु राजा की
। कृतार्थता निरी क्लेश भरी होती है। • दोहा-हाथ मनोरथ के लगे, अभिलाषा भरि जाति । ।
.., हाथ लगे को राखिबौ, करत खेद दिन रात ॥१७१।। . नृपताहू य जानिये, ज्यों छत्री कर माहिं ।
देति कष्ट पहले इतो, जेतो, मेटति नाहिं ।।१७२।। .
. (नेपथ्य में) , दो ढाड़ी-महाराज की जय रहे !
पहला ढाड़ी- .. काखा-निज कारण दुख ना सहो, पराए काज। ..
राजकुलन व्यवहार यह, सो पावहु महाराज ॥ . .' अपने शिर पै लेत हैं, वर्षा शोतर घाम ।
जिमि तरवर हित पथिक के निज तर दै विश्राम ।।१७३।। , दूसराछप्पय-दुष्ट जनन बश करन लेत जब दद प्रचंडहि ।
देत दडं उन नरन चलत मर्याद जो छंडहि ।। ।। करत प्रजा प्रतिपाल कलह के मूल विनाशहि। - • जिहि निमित्त नृपजेन्म धर्म सब, करत प्रकाशहि ।। , महाराज दुष्यन्त जू , चिरजीवोनित नवल वय । . . मेटि विघ्न उत्पात सब, परजहि करि राखो अभय ॥१७४।।
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