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'सकुन्तला नाटक ]
(कालगड़ा-इकताला) 'भ्रमर तुम मधु के चाखनहार । .. आम की रसभरी मृदुल मंजरी तासों प्रीति अपार ।। '
रहसि रहसि नित रस लैबे को धावत है करि नेम। . '' अ . क्यों कल श्राई कमल बसेरे कित भले प्यारी के प्रेम ॥१६२॥ -
दुष्यन्त-अहा ! कैसा प्रीत उपजाने वाला गीत है। - माढव्य-तुमने इन पदों का अर्थ भी समझा। - दुष्यन्त.- ( मुसका कर ) हाँ समझा, पहले मैं रानी हसपदिका पै आसक्त
था, अब बसुमती में मेरा स्नेह है इसलिए मुझे उलाहना देती है।'
मित्र माढव्य, तू जा हमारी ओर से रानी हंसपदिका से कह दे कि . '. हे रानी, हम इसी उलाहने के योग्य हैं। माढव्य-जो आजा महाराज की, ( उठता है ) हे मित्र, जैसे अप्सरा के हाथ
से तपस्वी का छुटकारा नहीं होता, आज मेरा भी न बनेगा, वह - रानी चोटी पकड़वा कर मुझे पराए हाथों पिटवाएगी। दुष्यन्तजा , चतुराई की रीति से उसे समझा देना। माढव्य-जाने क्या गति होगी।
जाता है। दुष्यन्त-(श्राप हो श्राप) यद्यपि मुझे किसी स्नेही का वियोग नहीं है तो
भी गीत के सुनते ही चित्त को आप से आप उदासी हो आई है। __इसका क्या हेतु है यह हो तो हो किदोहा-लखि के सुन्दर वस्तु अरु, मधुर गीत सुनि कोइ। -
' सुखिया जनहू के हिये, उत्कठा यदि होई ॥ १६३ ।। . कारन ताको जानिये, सुधि प्रगटी है आय । जन्मान्तर के सखन की, जो मन रही समाय ॥ १६४ ॥
[व्याकुल-सा होकर बैठता है |
(कंचुकी श्राता है) कंचुकी-अहा ! अब मै किस दशा को पहुंचा हूँ
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