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राजा भोज का सपना] सपना मालूम होता है । उस सपने के स्मरण ही से मेरे रोंगटे खड़े हुए जाते है।" राजा के मुख से हुक्म निकलने की देर थो, चौबदार ने तीन पडितों को जो उस समय वसिष्ट, यावल्क्य और वृहस्पति के समान प्रख्यात थे, बात को बात में राजा के सामने ला खड़ा किया । राजा का मुंह पीला पड़ गया था; माथे पर पसीना हो आया था। उसने पूछा कि "वह कौन सा उपाय
है जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा, पावे १" उनमें से . एक बड़े बूढ़े पंडित ने श्राशीर्वाद देकर निवेदन किया कि "धर्मराज धर्मा.
वतार यह भय तो श्रापके शत्रों को होना चाहिये, आपसे पवित्र पुण्यात्मा - के जी में ऐसा सन्देह क्यों उत्पन्न हुश्रा १ श्राप अपने पुण्य के प्रभाव का जामा पहन के बेखटके परमेश्वर के सामने जाइए, न तो वह कहीं से फटा-कटा है:
और न किसी जगह से मैला कुचैला है। राजा क्रोध करके बोला कि “बस अधिक अपनी वाणी को परिश्रम न दीजिये और इसी दम,अपने घर की राह
लीजिए । क्यों आप फिर उस पर्दे को डाला चाहते हैं जो सत्य ने मेरे सामने • से हटाया है ? बुद्धि की आँखों को बन्द किया चाहते हैं जिन्हें सत्य ने खोला
है। उस पवित्र परमात्मा के सामने अन्याय कमी नहीं ठहर सकता। मेरे 'पुण्य का जामा उसके आगे निरा चीथड़ा है । यदि वह मेरे कामों पर निगाह - करेगा तो नाश हो जाऊँगा, मेरा कहीं पता' भी न लगेगा।" ,
इतने में दूसरा पंडित बोल उठा कि "महाराज परब्रह्म परमात्मा जो .. अानन्दस्वरूप है उसकी दया के सागर का कब किसी ने वारापार पाया है, . वह क्या हमारे इन छोटे छोटे कामों पर निगाह किया करता है, वह कृपादृष्टि
से सारा बेड़ा पार लगा देता है !” राजा ने आँखें दिखला के कहा कि - "महाराज ! आप भी अपने घर को सिधारिए। आपने ईश्वर को ऐसा * अन्यायी ठहरा दिया कि किसी पापी को सजा नहीं देता, सब धान बाईस - पसेरी तालता है, मानों हरबोंगपुर का राज करता है । इसी संसार में क्यों नहीं देख लेते जो आम बोता है वह श्राम खाता है और जो बबूल लगाता है वह कोटे चुनता है.। क्या उस लोक में, जो जैसा करेगा सर्वदर्शी घट अन्तर्यामी से उसका बदला वैसा ही न पावेगा ! सारी सृष्टि पुकारे कहती है,