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. . . (३३ ) . ' उनकी शैली में भी पूर्ण रूप से व्याप्त है । भाषा, बड़ी संयत, व्याकरण की दृष्टि से विशुद्ध और प्रौढ़त्व का प्रदर्शित करने वाली है। इनकी भाषा गम्भीरता के साथ क्लिष्ट होती है, और उसका मर्म साधारण कोटि के पढ़ेलिखे व्यक्ति नहीं समझ सकते। विवेचनात्मक गवेषणात्मक विचारों का
अनुभूतिपूर्वक वर्णन करना शुक्ल जी पूर्ण रूप से जानते थे । आलोचना । - और निबंध-लेखन इनका प्रधान विषय है । अंगरेजी साहित्य में जिस प्रकार. 'गम्भीर आलोचना होती है, और विषय को स्पष्ट करने के लिए जिस प्रकार मनन और चिंतन का सहारा लिया जाता है शुक्ल जी की शैली भी उसी के अनरूप है और वह साधारण कोटि की न रहकर विद्वानों और मनन-शीलों की चीज बन गई है। विचारधारा कहीं विकृत नहीं दिखाई देती वरन् विषय के सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का निदर्शन करना इनकी प्रकृति के अनुकूल है । 'हिन्दी-साहित्य का इतिहास', 'गोस्वामी तुलसीदास', 'रहस्यवाद' और 'जायसी-अन्यावली' की भूमिका से शुक्ल जी की गम्भीर और मनन-शील
आलोचनात्मक प्रवृत्ति का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है । 'विचारवीथी' शुक्ल '. जी के निबंधों का संग्रह है। इसमें साहित्यिक विषयों पर गम्भीर और विद्वता
पूण विर्चार प्रकट किये गये हैं । इन निबधों से प्रकट होता है कि लेखक • , व्यावहारिक और- बोधगम्य भाषा में मानवीय जीवन से सबद्ध विषयों के ' सूक्ष्म विवेचन में कितना सिद्ध है । लेखक जिस समय अपने विचारों को प्रकट, ‘करता है तो उसे न्यून या संक्षिप्त विवेचन से संतोष नहीं मिलता वरन् किसी विचार को प्रकट करके उसे और भी स्पष्ट करने की चेष्टा करता है । इसी लिर उच्च श्रेणी के विद्यार्थी और साहित्य-रसिक-जन शुक्ल जी की लेखन-शैली से काफी प्रभावित होते हैं और उनका शान भी बढ़ता है। इनकी रचनाशैली में गम्भीर विवेचन के साथ ही साथ कहीं-कहीं मधुर हास्य और व्यंग की उद्भावना भी दिखाई देती है । किन्तु उस व्यग मे भी गम्भीरता होती है। इससे रचनाशैली में चमत्कार आ जाता है। इनकी भाषा मे विषया
नुकूल संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक पाया जाता है। आप ने ,, हिन्दी-साहित्य-शास्त्र में कुछ नवीन पारिभाषिक शब्द भी प्रचलित किये हैं।