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लेखों में सुन्दर मुहाविरों की भरमार दिखाई देती है। यहाँ तक कि लेखों से शीर्षक तक मुहाविरों में ही पाये जाते हैं। कहीं-कहीं मिश्र जी की रचना में पुरानी चाल का पडिताऊपन भी दिखाई देता है । मिश्र जी ने अपने हार्दिक भावों के प्रवाह में आकर कहीं-कहीं व्याकरण के नियमों की भी परवाह नहीं की है। इनकी शैली मे वड़ा पाकर्षण और विचित्र वांकापन है जो अन्य लेखकों की रचना में नहीं मिलता । मिश्र जी ने 'ब्राह्मगा" मासिक पत्र तथा अपनी अन्य रचनाओं के द्वारा हिन्दी की अच्छी सेवा की है ।
बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन' इनके समय में भाषा-शैली में प्रौढता पा रही थी। अतएव प्रेमघन जी ने गद्य निर्माण मे एक नवीन ही स्वरूप प्रकट किया । अपने सम सामयिक लेखकों की शैली का अनुकरण न करके इन्होंने भाषा-शैली को अपने ढङ्ग का एक विलक्षण साहित्यिक रूप दिया । भाषा को अलंकारों से युक्त करना, उसे विशुद्धता की ओर अग्रसर करना और संस्कृत भाषा के शब्दों से युक्त करना इनकी शैली की प्रधानता है । बड़े-बड़े वाक्य लिखना और अपनी भाषा को विद्वता से परिपूर्ण वनाना इनका स्वाभाविक क्रम था। परिणाम स्वरूप इनकी भाषा में दुरूहता और अन्यवहारिकपन का आभास मिलता है । अलंकारिकता इनकी भाषा का प्रधान गुण है । प्रेमघन जी एक बहुत ही मौजी स्वभाव के
और साज-शृङ्गार-प्रिय लेखक थे। अतएव अपनी भाषा और भावों को भी इन्होंने, अपने स्वभाव के अनुसार ही, सजावट के साथ अलंकृत रूप में प्रकट किया है । अपनो "पानन्द-कादम्बिनी" पत्रिका के द्वारा इन्होंने हिन्दी की। अच्छी सेवा की । इन्होंने सायिक और साहित्यिक विषयों के साथ-साथ . हिन्दी में समालोचना लिखने की भी परिपाटी चलाई।
बालमुकुन्द गुप्त हिन्दी-गद्यशैली के विकास में गुप्त जी का सहयोग विशेष स्थान रखता है । गुत जी कलकत्ते के प्रसिद्ध प्राचीन पत्र 'भारत-मित्र के संपादक थे । पहले