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साहित्य और सौन्दर्य-दर्शन ] मानव-हृदय के सौंदर्य हैं और इन गुणों का भाव जिस मात्रा में स्त्री जाति में पाया जाता है उस मात्रा में पुरुष जाति में नहीं । इसलिए साहित्य संगीत इत्यादि सब ललित कलाओं की जननी भी स्त्री ही को मानना चाहिए। राधा स्वकीया हो या परकीया; पर श्रीकृष्ण के साथ वह सव ललित कलायों की जननी जरूर है । और सब ललित कलाओं से सौंदर्य का घनिष्ठ संबंध है । विहारी का एक यही दोहा ले लीजिए:
मेरी भव-बाधा हरो, राधा नागरि सोय ।
जा तन की झाई परे स्याम हरित दुति होय ।। इसमें बाह्य जगत् अर्थात् प्रकृति का सौंदर्य दिखलाकर कवि अन्तजगत् सौंदर्य की ओर हमको ले चलता है या नहीं ? यदि 'प्रकृति' का सौदर्य न हो, कला के द्वारा 'पुरुष' के सौंदर्य को हम कैसे देखें १ इमको सौंदर्य का दर्शन कराने के लिए ही तो कला का जन्म हुआ है। वैदिक ऋषियों ने उषादेवी के रमणीय रूप का दिव्य सौन्दर्य देखा सो कला की ही दृष्टि से और आज भी हम वैदिक मन्त्रों में वही सौंदर्य देख रहे हैं; सो भी कला की दृष्टि से, और प्रभात काल की उस सुन्दर लालिमा का 'उषा' नाम रक्खा गया है सो भी कला की दृष्टि से । एजण्टा की गुफाओं का शिल्पसौंदर्य, ताजमहल का कवित्व-पूर्ण शिल्पकौशल, शङ्कर का ताण्डव नृत्य, राधाकृष्ण का मुरलीवादन और रास-विलास, तानसेन और बैजू बावरे की संगीत-पटुता, मयासुर की शिल्प-रचना, राजकुमारी उपा का चित्र लेखन व्यास, वाल्मीकि और कालिदास का वाग्विलास, इत्यादि सृष्टि-सौंदर्य और मानव-सौंदर्य का जितना कुछ साहित्य है, सव कलादेवी को ही कृपा का प्रसाद है। वर्तमान समय मे विज्ञान ने कला के सच्चे स्वरूप को नष्ट कर दिया है, इसलिए सृष्टि-सौदर्य या मानव-सौदर्य का वह मनोरम स्वरूप अव नहीं रह गया है। उसकी जगह सर्वत्र एक वीभत्स स्वरूप दिखाई दे रहा है। बर्तमान समय में कला का झुकाव सौंदर्य की अोर नहीं है। कोई भी कला ले लीजिए, उसका झुकाव स्वार्थ या भौतिक अानन्द की अोर है । “सत्यं शिवं सुन्दरम्" जो सुन्दर है वह सत्य और शिव भी होना चाहिए, अथवा