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साहित्य और सौन्दर्य-दर्शन ]
सौंदर्य के विषय में पूर्वीय और पश्चिमीय दृष्टिकोण कुछ भिन्न भिन्न हैं। हमको यदि गुणमूलक भीतरी सौंदर्य के बिना सौंदर्य दिखाई नहीं देता, तो पश्चिमीय कलाभिज्ञों को बाहरी सौदर्य के बिना संसार में सौंदर्य की कल्पना भी नहीं हो सकती। पर यदि हम वाह्य सौदर्य मे ही भटकते रहे, तो हम सौंदर्यगत शाश्वतता का अनुभव नहीं कर सकते । मान लीजिए कि हम किसी रमणी के सौंदर्य को देखकर मुग्ध होते हैं और हमारी इस मुग्धता मे कामजन्य घासना है, तो हमारे इस सौंदर्य दर्शन में शाश्वता की भावना नहीं है । पश्चिमीय देशों में बाह्य सौंदर्य को देखकर ही मोहवश तरुण-तरुणी प्रेमपाश और विवाह-बंधन में बंध जाते हैं, पर कालान्तर में उनको सौदर्य की भावना नष्ट हो जाती है । भीतरी सौदर्य के अनुभव करने को उनकी शक्ति भी जाती रहती है । वे एक दूसरे के गुणों पर मुग्ध नहीं हो सकते । उनका गाहस्थ्य जीवन दुःखमय हो जाता है और प्रायः विवाह-विच्छेद की ही नौवत श्रा जाती है । कुछ लोगों का ऐसा विचार है कि स्त्री सौदर्य का अनुभव कामवासना के विचार के विना हो नहीं सकता। सिर्फ एक इसी दृष्टि से पुरुष को स्त्री सुन्दर दिखाई देती है। सृष्टि-सौंदर्य मे पुष्प यदि हमको सुन्दर दिखाई देता है तो सिर्फ इस लिए कि उसका सौन्दर्य रमणी के मुख कमल की तरह है । फूल की कलियों का आकार' मृदुता और रंग इत्यादि सव नारी-सौन्दर्य के ही सदृश हैं, और इसीलिए फूल हमको प्यारा मालूम होता है । चन्द्रमा के सौन्दर्य की कल्पना भी कवियों को स्त्री के मुख-चन्द्र को देखकर ही हुई । जैसे एक कवि कहता है कि प्यारी का मुख-सौदर्य देखकर चन्द्रमा शकित रहता है और इसीलिए उसका शरीर प्रति दिन क्षीण होता जाता है और उसके हृदय में कालिमा भी आगई है दूसरा कवि कहता है कि चन्द्रमा उसके मुख की बराबरी क्या करेगा-कितने ही चन्द्र उसके पैरों (के नखों ) मे पड़े हैं ! तीसरा कवि कहता है कि ब्रह्मा ने जब हमारी नायिका की सृष्टि की तब उसके मुख-सौन्दर्य को चन्द्रमा के सौन्दर्य से तौलने के लिये तुला पर रक्खा । चद्रमा का सौन्दर्य हलका होने से ऊपर उड़ गया और हमारी नायिका पृथ्वी पर श्राई ! तुलसीदास जी ने तो सीता जी के मुख-सौन्दर्य की चन्द्रमा से तुलना