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"हिन्दी-गद्य-निर्माण विकट विषमता के कुबीज बो रहे हैं। ग्राह! हमारे दुर्बल प्राणों को पापी
आतताइयों की प्रचण्ड पीड़ाएँ मारे डालती हैं। तुम ऐसे गाढ़े मौके पर कहाँ हो स्वामी ! प्रायो, आयो ! और हमे अत्याचार के आतंकी श्राक्रमयों से बचायो !"
"हे सहसपादाक्षिशिरोरुवाहवे!" भक्त साधुओं ने गम्भीर गुहार दो___ "वर्तमान जगत् नास्तिकता की ओर बढा जा रहा है। बढ़ा जा रहा है
तुम्हें और तुम्हारी श्रुतिविदित विभूति और विक्रम को विसार कर ! और, वह क्यों न बढ़ा जाय ? जब लाख लाख पुकारने पर भी तुम नहीं पसीजते, नहीं बोलते-अपने जागरित अथवा अजागरित अस्तित्व का कुछ परिचय नहीं देते, तव लाचार होकर मनुष्यता के पीड़ित वच्चे तुम्हारे प्रति और तुम्हारे अस्तित्व के प्रति, नाम के प्रति धाम के प्रति विद्रोह करते हैं। प्राह ! इस देश के ये पीड़ित, ये भक्त, ये भावुक, ये भोले, कव से तुम्हें पुकार रहे है। परमेश ! तुम क्यों नहीं पधारते तुम क्यों नहीं पधारते ?” . ____ "भाई, 'अभागिनी अबलात्रों ने कांपते कण्ठ से कराहकर कहा"हमारी सुधि आप क्यों नहीं लेते ? आह ! क्या हम अापकी सृष्टि, अापकी .. सन्तानं, नहीं हैं ? तो हमें अापही की श्राधी कृतिबली बनकर, शानी बन कर मदान्ध होकर क्यों नाशे डालती है ? क्यों खाए पचाए जाती है ? ये - पशु, ये पीड़क, ये पापी, ये पुरुष हमें गोया आत्मवती मानते ही नहीं। हम सुकुमार क्या हो गई। इनके भोग की सामग्री हो गई। हम सुन्दर क्या हो गई इनकी असुन्दर वासनाओं की चेरी हो गई। हम करुणामयी क्या हो गई इनकी कठोरता की, क्रूरता की, कुकमों की क्रीड़ा स्थली बन गई हैं। उफ ! हमारा तन पवित्र पुष्पों-सा; हमारा मन गंगा-जल सा; हमारा धन स्वर्ग-मा दला मला जा रहा है, अपवित्र किया जा रहा है, लूटा जा रहा है । नरक बनाया जा रहा है । हे विश्वसखे ! तुम कहाँ अलक्ष हो, किधर विप हो-क्यों मौन हो ? पात्रो प्राण १ वचाओ, प्राण !!
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"पश्चात्ताप करो ? पश्चात्ताप करो।" उसी देश के किसी विख्यात्