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हिन्दी-गाव-निर्माण
. . मन्तःपुर का प्रारंभ
' [बेखक-रायकृष्णदास जी ]
हूँ-ॐ, हूँ-ॐ, हूँ-ॐ के वज-निनाद से सारा जंगल दहल उठा।
उस गंभीर भयावनी ध्वनि ने तीन बार, और उसकी प्रतिध्वनि ने गात-सात बार सातों पर्वत श्रेणियों को हिलाया और जब यह हु-हुँकार शांत हुआ तब निशीय का सन्नाटा छा गया, क्योंकि पशु पक्षी किसी की मजाल. न थी कि जरा सकपकाता भी।
- अब केसरी ने एक बार दर्प से आकाश की ओर देखा, फिर गरदन घुमा-घुमा कर अपने राज्य-वन प्रांत-की चारों सीमाओं को-परतास डाला । उसके घुघराले केश उसके प्रपुष्ट कयो पर इठला रहे थे। अकड़ता हुश्रा, डकरता हुअा, निईन्द मस्तानी चाल से उस टीले के नीचे उतरने लगा, जिसपर से उसने अभी गर्जना की थी।
उसने एक बार अपनी पूँछ उठाई। उसे कुछ क्षण चवर की तरह , डुलाता रहा, फिर नीचे करके एक बार सिंहावलोकन करता हुआ चलने लगा। उसके घुडनों की धीमी चड़मड़ भी जी दहला देनेवाली थी।
ऊपर पहाड़ी में एक गुफा थी। बहुत बड़ी नहीं, छोटी सी हो। आजकल के सभ्य कहलानेवाले-प्रकृति से लाखों कोस दूर-दो मनुष्य उसमें कठिनता से विश्राम कर सकें, लेकिन यह उस समय की बात है, जब मनुष्य यनौकस था । कृतयुग के श्रारम्भ की कहानी हैं।
गुहा का आधा मुंह एक लता के अंचल से ढका था। प्राधे में एक । मनुष्य खड़ा था । हाँ, मनुष्य; हम लोगों का पूर्वज, पूरा लम्बा, ऊँचा पंच-, हत्या जवान, दैत्य के सदृश्य बली, मानों उसका शरीर लोहे का बना हो। ' उसके बाएँ हाथ में धनुष था और दाहिने हाथ में वाण । कमर में कृष्णाजिन बँधा हुआ था-मौजी मेखला से । पोठ पर रुरु के अजिन का उत्तरीय था। उस खाल की दो टॉगों की-एक आगे की, दूसरे पीछे की; एक दाहिनी