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[-हिन्दी-गद्य-निर्माण __ मैं अव रात को जाऊँगा । मेरी गरीवी अव रुसवाई की हद तक पहुँच
चुकी हैं । उस पर परदा डालना व्यर्थ है । मैं इसी वक्त जाऊँगा । जिसे रईस और राजे आमांत्रित करें. वह कोई ऐसा वैसा श्रादमी नहीं हो सकता। राजा साहब साधारण रईस नहीं है । वह इस नगर क ही नहीं, भारत के विख्यात रईसों मे है । अगर अब भी कोई मुझे नीचा समझे, तो वह खुद नोचा है।
संध्या का समय है। प्रवीण जी अपनी फटी-पुरानी अचकन और . सड़े हुए जूते और बेढङ्गी-सो टोपी पहने घर से निकले । ख्वामख्वाह बाँगडू उचक्के से मालूम होते थे । डील-डौल और चेहरे-मुहरे के आदमी होते तो । इस ठाठ में भी एक शान होती । स्थूलता स्वयं रोब डालने वाली वस्तु है। - पर साहित्य-सेवी मोटा-ताजा, डवल आदमी है. तो समझ लो उसमे माधुरी नहीं, लोच नहीं, हृदय नहीं १ दीपक का काम है जलना। दीपक वही लवालव भरा होगा, जो जला नहीं। 'अकबर' ने कहा है
"शिकम होता तो मैं इस अहद में फूला-फला होता । . .
सरापा-दिल वला हूँ इस सबर से कुश्तए-गम हूँ।" फिर भी आप अकड़े जाते हैं एक-एक अंग से गर्व टपक रहा है। यो घर से निकल कर वह दूकानदारों से आँखें चुराते. गलियों से निकल जाते थे। आज वह गरदन उठाए. उनके सामने से जा रहे हैं।
आज वह उनके तकाजों का दा-शिकन जवाब देने को तैयार है। पर संध्या का समय है, हरेक दूकान पर ग्राहक बैठे हुए हैं । कोई उनकी तरफ नहीं देखता । जिस रकम को अपनी हीनाव्यस्था में दुर्निवार समझते थे, वह दुकानदारों की निगाह में इतनी जोखिम न थी, कि एक बाने-पहचाने
आदमी को सरे-बाजार टोकते, विशेषकर जब वह आज किसी से मिलने, जाते हुए मालूम होते थे।
प्रयोण ने एक बार सारे बाजार का चक्कर लगाया, पर जी न भरा। तब दूसरा नक्कर लगाया; पर वह भी निष्फल । तब वह खुद हाफिज समद