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[हिन्दी-गध निर्माण ,
__प्राप्त हो सकी है, नहीं तो सब रास्ते ही में रह गये
थक-यक के हर मुकाम पै दो-चार रह गये; अागे न चल सके तो लाचार क्या करें।"
(अपनी
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साहित्य का स्वरूप ..
[लेखक-पं० रामचन्द्र शक्ल] साहित्य के अन्तर्गत वह सारा वाड्मय लिया जा सकता है जिसमें अर्थबोध के अतिरिक्त भावोन्मेष अथवा चमत्कारपूर्ण अनुरञ्जन हो तथा जिसमे ऐसे वाड्मय की विचारात्मक समीक्षा या व्याख्या हो। भावान्मेष . से मेरा अभिप्राय हृदय की किसी प्रकार की प्रवृत्ति से रति, करणा क्रोध इत्यादि से लेकर रुचि अरुचि तक से हैं और चमत्कार से अभिप्राय उक्तिवैचित्र्य के कुतूहल से है । अर्थ से मेरा अभिप्राय वस्तु या विषय से है। अर्थ चार प्रकार के होते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमित श्रासोपलन्ध और कल्पित । प्रत्यद की बात हम अभी छोड़ते हैं । भाव या चमत्कार से निःसंग विशुद्ध रूप में . अनुमित अर्थ का क्षेत्र दर्शन-विज्ञान है, प्राप्तोपलब्ध का क्षेत्र इतिहास है। कल्पित अर्थ का प्रधान क्षेत्र कान्य है। पर भाव या चमत्कार से समन्वित होकर ये तीनों प्रकार के अर्थ काव्य के आधार हो सकते हैं और होते है । यह आवश्यक है कि अनुमित और प्राप्तोपलब्ध अर्थ के साथ काव्य भूमि में कल्पित अर्थ का योग थोड़ा बहुत रहता है, जैसे दार्शनिक कविताओं में, रामायण पद्मावत आदि ऐतिहासिक काव्यों में । गम्भीर-भाव-प्ररित काव्यों में कल्पना प्रत्यक्ष और अनुमान के दिखाये मार्ग पर काम करती हैं और बहुत पना
और बारीक काम करती है । कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य के भीतर । पहले तो वे सब कृतियां आनी है जिनमे भावव्यंजक या चमत्कार विधायक अंश पर्याप्त होता है, फिर उन कृतियों की रमणीयता और मूल्य वृदयंगम