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भीगणमह]
१३६ . . तावदेषा 'देवभाषा' देवी स्थास्यति भूतले। . यावच्च वंशोऽस्त्यार्याणा तावदेषा ध्रुवं ध्रुवा ।
अर्थात्-जो इस दिव्यभारती अमर भाषा को मृत कहकर निन्दा करते हैं, और इससे दूर भागते हैं, पडितम्मन्य मूर्ख हैं; वृद्धमानी है, पर बालक है; अखेिं रखते हैं, पर अन्धे हैं. मस्त हाथी की तरह, देखा अनदेखा कर जाते हैं; अाज भी विद्वान् ब्राह्मणों के मुख में रुचिर पदविन्यास मे नृत्य करती हुई-दधर-उधर विचरती हुई भी इस ब्राझी वाणी को वह नहीं देखते ! जब तक ससार में वेदत्रयी विद्यमान है, जब तक वाल्मीकि की रामायण और अमृतवर्षा करती हुई व्यास की रचना (महाभारत आदि) तया सरस्वती की सुसन्तान कालिदास की कविता मौजूद है, अधिक क्या अब तक प्राय जाति वर्तमान है, तब तक संस्कृत भाषा भी रहेगी। यह कमी मर नहीं सकती।
संस्कृत में गद्य का अभाव न इस कारण है कि वह कभी व्यवहार की भाषा नहीं थी, और न इसलिए कि वह एक 'मृतभाषा' हैं । संस्कृत । में भी गद्य के अभाव का वही कारण है, जा. दूसरी उल्लिखित भाषाओं मे है। बात यह है कि साहित्य कल्पनाकुशल, सरस और सन्तुष्ट चित्त का प्रतिबिम्ब होता है। जब मनुष्य के हृदय में प्रानन्द की लहर उठती है, तो अनायास एक उच्छवास निकलता है । उसके साथ ही कहनेवाला गुनगुनाने लगता है। भले ही वह गाना न जानता हो, स्वर बुरा हो या भला हो, मच्छर के मिनभिनाने का अनुकरण हों या तन्त्रीनाद का । साहित्य के साथ संगीत की प्रवृत्ति. स्वाभाविक है, इसीलिए रूपक के रूप मे साहित्य और
सगोत सरस्वती माता के दो स्तन कहे गये हैं-"संगीतमपि साहित्य सरस्वत्यः । स्तनदयम् ।" जब यह बात है, तो असाधारण कल्पनाकुशल प्रतिभाशाली
प्रावं कवियों के हृदय का हषोल्लास पद्य प्रणाली को छोड़कर गद्य के साँचे में क्यों ढलकर निकलता ? श्रवणसुखद सगीत के साथ टक्कर क्यों न लेता? गय तो संगीत से मेल नहीं खाता और संगीत का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता । जब एक ही निशान में दो लक्ष्यों का वेष हो सकता हो, तो