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( १६ ) का उपयोग करते हैं; और उथले दमाग वाले हल्के साहित्य को पढ़कर अपना मनोरजन करते हैं। फिर पहले पद्य ही क्यों लिखा गया। इसका कारण हम पहले ही बतला चुके हैं कि पद्यकाव्य मनुष्य को स्वाभाविक ही प्रिय है. इसलिए स्वभाव से ही मनुष्य समाज ने उसको पहले पकड़ा; और जो परिपाटी एक बार चल पड़ी, वह चलती ही जाती है. फिर राजनीतिक ।
और सामाजिक कारणों से उथल-पुथल होने के साथ लोगों की मनोवृत्ति । मे भो उथल-पुथल होता है ।
अस्तु । उपयुक्त परिपाटी के अनुसार हिन्दी साहित्य में भी पहले पद्य का ही निर्माण मिलता है । विक्रम की नवीं दसवीं शताब्दी के लगभग हिन्दी पद्य का जन्म हुआ, जिसकी अविच्छिन्न धारा सत्रहवीं शताब्दी तक बरावर चलती रही और इस वीच गद्य में साहित्य-सृजन करने का कोई व्यापक अथवा निश्चित स्वरूप दिखाई नहीं देता। परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि जनता में गद्य का कोई स्वरूप उस समय था ही नहीं-नहीं, अवश्य था किन्तु साहित्य की दृष्टि से, लेखक के रूप में उसका उपयोग नहीं होता था । लोक-व्यवहार यानी निजी चिट्ठी-पत्री और राजकीय कागज-पत्रों... इत्यादि तक ही गद्य का व्यवहार सीमित था। इसमें सन्देह नहीं कि गद्य का कोई साहित्यिक रूप ग्रन्थों अथवा निवन्धों या लेखों के रूप में जनता के सामने नहीं था परन्तु फिर भी मौखिक रूप में कथावाचक व्यास, कीर्तनकार. हरिदास और प्रवचन करने वाले गुरु, जनता और शिष्यों के सामने, हजारों वर्ष पहले भी अपना साहित्य-सृजन गद्य में ही करते थे-वे जनता के सामने जो अपना मौखिक व्याख्यान रखते थे, वह पद्य में नहीं होता था। हाँ यह वात जरूर है कि उस समय अाजकल की भाँति छापेखाने और मौखिक साहित्य की रिपोर्ट लेने वाले "प्रेस-रिपोर्टर नहीं थे, और उनको इन चीजों की आवश्यकता भी नहीं थी। सारांश यह है कि उस समय उद्योग-धंघों, . कला-कौशल, धर्म-प्रचार, अध्ययन-अध्यापन इत्यादि के सव कामकाज मौखिक गद्य में होते थे । साहित्य लिखने का काम पद्य में होता था।
हिन्दी भाषा के भिन्न-भिन्न रूप अथवा पद्य मे, हिमालय और