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[हिन्दी-गद्य-निर्माण था-श्रव कहाँ है ? इस गूढ़ एवं मर्मस्पर्शी प्रश्न का यही उत्तर मिलता है कि 'वह सब भगवान् महाकाल के महापेट में समा गया ।, निःसन्देह हम भी. उक्त प्रश्न का एक यही उत्तर देते हैं कि 'वह सव भगवान् महाकाल के महापेट में समा गया ।
जो अपनी व्यापकता के कारण प्रसिद्ध था, अव उस प्रवाह का भारतवर्ष में नहीं है, केवल उसका नाम ही अवशिष्ट रह गया है। कालचक्र के वल, विद्या, तेज, प्रताप आदि सब चकनाचूर हो जाने पर भी उनका , कुछ-कुछ चिन्ह वा नाम बना हुआ है, यही डूबते हुये भारतवर्ष का सहारा है और यही अन्धे भारत के हाथ की लकड़ी है। , ''
जहाँ महा महीघर लुढ़क जाते थे और अगाध अतुलस्पर्शी जल था. वहाँ अब पत्थरों में दवी हुई एक छोटी-सी किन्तु सुशीतल वारिधारा बह रही है, जिससे भारत के विदग्ध जनों के दग्ध हृदय का यथाकिंचित् संताप दूर हो रहा है । जहाँ के महा प्रकाश से दिगदिगत उद्भासित हो रहे थे, वहाँ अब एक अन्धकार से घिरा हुश्रा स्नेह-शून्य प्रदीप टिमटिमा रहा है जिससे कभी-कभी भूभाग प्रकाशित हो रहा है ! पाठक ! जरा विचार कर देखिये, ऐसी अवस्था में कहाँ कब तक शान्ति और प्रकाश की सामग्री स्थिर रहेगी। यह किससे छिपा हुआ है कि भारतवर्ष की सुख-शान्ति और भारतवर्ष का प्रकाश अब केवल राम नाम पर अटक रहा । 'राम नाम' ही अब केवल हमारे संतप्त हृदय को शान्तिप्रद है और राम नाम' ही हमारे अन्धे घर का दीपक है।
___यह सत्य है कि जो प्रवाह यहाँ तक क्षीण हो गया है कि पर्वतों के उथल देने की जगह आप प्रति दिन पाषाणों से दव रहा है और लोग इस बात को भूलते चले जा रहे हैं कि कभी-कभी यहाँ भी एक प्रबल नद प्रवाहित हो रहा था, तो उसकी पासा परित्याग कर देनी चाहिये । जो प्रदीप स्नेह रे परिपूर्ण नहीं है तथा जिसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है और प्रतिकूल वाइ चल रही है, वह कव तक सुरक्षित रहेगा ? (परमात्मा न करे) वायु के एक झोंके में उसका निर्वाण हो सकता है।