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आजकल के छायावादी कवि और कविता ]
१२७ हैं। कोई उनके अर्थ को रमणीयता-सापेक्ष्य बतलाता है; कोई उनमें उनके भाव के अनूठेपन की पख लगाता है । कोई इन विशेषताओं के साथ शन्दशुद्धि, छन्द-शास्त्र के नियमों के परिपालन और अलङ्कार श्रादि की योजना को भी आवश्यक बताता है। पर आप इन पचड़ों और झगड़ों को जाने दीजिए।
आप सिर्फ यह देखिए कि कोई पत्र लिखता,बोलता या व्याख्यान देता है तो , दूसरे पर अपने मन का भाव प्रकट करने ही के लिए वह ऐसा करता है या ' नहीं। यदि वह इसीलिए कुछ नहीं करता तो न उसे लिखने की जरूरत
और न बोलने की । उसे मूक बनकर या मौनधारण करके ही रहना चाहिए सो बोलने या लिखने का एक मात्र उद्दश्य दूसरों को अपने मन की बात बताने के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता। जो अँगरेजी या वंगला भाषा नहीं जानता उसे इन भाषाओं की बढ़िया से भी बढ़िया कविता या कहानी सुनाना बेकार है । जो बात या जो भाषा मनुष्य सबसे अधिक सरलता मे समझ सकता है उसी बात या उसी भाषा की पुस्तक पढ़ने या सुनने से उसके हृदय पर कुछ असर पड़ सकता है। क्योंकि जब तक दूसरे का व्यक्त किया हुअा मतलब समझ मे न आवेगा तब तक मनुष्य के हृदय में कोई
भी विकार जागृत न होगा। पशुओं के सामने आप उत्तमोत्तम कविता का पाठ कीजिये। उन पर कुछ भी असर न होगा।
- अतएव गद्य हो या पद्य, उनमें जो कुछ कहा गया हो वह श्रोता या पाठक की समझ में आना चाहिए । वह जितना ही अधिक और जितना , ही जल्द समझ मै आवेगा,गद्य या पद्य के लेखक का श्रम उतना ही अधिक और उतना ही शीघ्र सफल हो जायगा । जिस लेख या कविता में यह गुण होता है उसकी प्रासादिक संशा है । कविता में प्रसाद गुण यदि नहीं तो कवि की उद्दश्य सिद्धि अधिकांश में व्यर्थ जाती है । कवियों को इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिये । जो कुछ कहना हो उसे इस तरह कहना चाहिए कि वह पढ़ने या सुननेवालों की समझ में तुरन्त ही आ जाय । इसे तो आप कविता का पहला गुण समझिये। दूसरा गुण कविता में यह होना चाहिए कि कवि के कहने के ढङ्ग में कुछ निरालापन या अनूठापन