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( १२ ) स्वाभाविकता और सजीवता नष्ट हो जायगी।
फिर इसके सिवाय एक वात और भी है-वोलचाल की भाषा सिर्फ व्याख्यानों और अखबारों मे ही काम दे सकती है । इसके बाद कुछ कुछ उपन्यासों और कहानियों में भी उसका उपयोग हो सकता है । प्रहसन और नाटक भी वोलचाल की भाषा मे लिखे जा सकते हैं । परन्तु अन्य गम्भीर । विषयों मे बोलचाल की भाषा लिखना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। कोई भी गम्भीर विषय-फिर उसमें हम चाहे जितने पारंगत क्यों न होशास्त्रीय और पारिभाषिक शब्दों के विना ममझाया नहीं जा सकता। और जहाँ शास्त्रीय और पारिभाषिक शन्द आवेंगे, वहाँ उस भ पा की संस्कृति का प्रश्न भी उठ खड़ा होगा । किसी भी भाषा के शब्दों के साथ उसकी प्राचीन संस्कृति का स्वाभाविक सम्बन्ध अवश्य रहता है । शब्दों की वही शक्ति हृदय पर प्रभाव डालती है, जिस शक्ति का राष्ट्र के अधिकांश मानव-समाज से परम्परागत सम्बन्ध होता है; और शक्ति का उपयोग उस राष्ट्र के पूर्वज , लोग सदैव से करते आ रहे हैं । भारतवर्ष के लिए तो यह सिद्धान्त और भी अधिक लागू है। क्योंकि यहाँ की मूल सभ्यता और संस्कृति अनेक प्रतिक्रियायों से ठोकर लेती हुई अब तक जागृत और जीवित है । इसकी भित्ति ऐसी ही दृढ़ चट्टान पर यहाँ के पूर्वजों ने रखी है । अतएव अपनी संस्कृति की अपेक्षा हम किसी तरह से नहीं कर सकते । इस लि र नवयुवक लेखकों से प्रार्थना है कि वे लेखनी संचालित करते समय अपनी भाषा के स्वाभाविक प्रवाह से दूर न हट जावें । जिन लोगों के लिए वे कुछ लिखते हैं, उनकी परम्परागत शैली का अवश्य ध्यान रखें । नवीन विषयों को प्राचीन साँचे मे दालते हुए, उत्क्रान्ति की अोर अवश्य चलें परन्तु कोई भी ऐसा कार्य न करें, जिससे हमारे पूर्वज ऋषियों की प्रात्मा दुःखी हो, जो अपनी आत्मपूत . लेखनी से अव भी संसार के गुरु बने हुए हैं ।
शैली के विषय में अपने नवयुवक लेखकों को एक इशारा हम और भी कर देना चाहते हैं । भाषा लिम्वते समय वे अपने त्वरपात (Aceentuation) पर अवश्य 'यान रखे । भाषा शैली में त्वरपात यानी लहता
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