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हिन्दी भाषा का विकासे ]
११५ 'जाकर दूसरा रूप धारण कर लेते हैं । इसी से भगवान् मनु आज्ञा करते हैं कि
एतद्दशप्रसूतस्य सकाशाग्रजन्मन:।
___ स्व स्वं चरित्रं शिरन् पृथिध्या सर्वमानवा : ॥ . हमारा यह मध्यदेश मानों भगवती भारती के परिभ्रमण का प्रधान पुष्पोद्यान है । उसमें भी यह अण्डट्रङ्करोड मानो भाषा भारत की भो अण्डट्रक रोड है, जो सदा देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक निरन्तर चलती रही है। भारत के प्रधान तीर्थयात्रियों की भाँति भाषा का भी कोई पथिक ऐसा नहीं कि , जिससे इसका परिचय न हुआ हो । अन्य सब उपभाषा रूपी सड़के सदा इसकी शाखा वा सहायक स्वरूप रही हैं और इसका संबन्ध सदा इसके साथ समान । रूप से रहा है। सबसे इससे थोड़ा बहुत अब भी व्यवहार वना हुआ है।
हमारी मातृभाषा का परपरागत यथार्थ नाम भाषा ही है ठीक जैसे कि अनादि काल से चले आते हमारे धर्म का नाम धर्म है । अन्य जितने धर्म . हैं सबकी एक-एक संज्ञा विशेष है जैसे बौद्ध, जैन, वैष्णव, शैव, शाक्त, 'अनेक पन्थी, वा मुसलमान कृस्तान आदि । अाजकल जब बहुत विभेद बढ़ा, - तो निज समूह के समान प्रतिद्वन्द्वियों के सम्मुख कुछ लोग उसे सनातन धर्म कहते हैं, परन्तु वह भी समूहवाची-सा हो गया है। ऐसे ही भाषा शब्द भी उसी सनातनधर्म के तुल्य है । पहिले देववाणी भी केवल भाषा ही कहलाती थी। जब वह सामान्य जनों की भाषा न रही, वरञ्च प्रधान भाषा प्राकृत हुई, तो उसका नाम देववाणी, वैदिक भाषा और संस्कृत हुआ और यह भाषा ही कहलाती रही। जब इसके भी भेद हो चले और प्रान्तिक भाषाएँ नये नये रूप बदल कर नवीन नामों को धारण कर चलीं, तो वह आर्ष प्राकृत वा महाराष्ट्री यों ही भिन्न-भिन्न प्रान्तों के नामों से प्रान्तिक पुकारी जाने लगी। किन्तु हमारे मध्यदेश की प्रधान भाषा ही कहलाती रही, जिसके
पश्चिमी छोर पर शौरसेनी, पूर्वी सीमा पर मागधी का अधिकार था। यों ही ___ दक्षिण मे श्रावन्ती दक्षिणात्या और उत्तर में उदोची का प्रचार था। बीच । के पूर्वी भाग की भाषा को अर्द्ध मागधी भी पुकारते थे । यो ही पश्चिमी को