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________________ प्रायश्चित्त समुधव । ऋतुके तथा माघ और फाल्गुन ये दो शिशिर ऋतुके हैं। उक्त छह ऋतुओंमें पहलेकी तीन ऋतुए तो गुरुकाल हैं और आगेको तीन ऋतुएं लघुकाल हैं ॥ १३४ ॥ लघुद्वंद्वो गुरुद्वंद्वो गुरुकालस्तपो गुरुः । गुरुरन्यतरःपंच भंगाः कालतपोदयात् ॥१३५॥ • अर्थ-लघुदद्व-काललघु और तप भी लघु, गुरुद्वंद्वकाल गुरु और तप भी गुरु, गुरुकाल-कालगुरु, तपो गुरुगुरु तप और अन्यतर गुरु-दोनोंमेंसे एक गुरु इस तरह काल और तप दोनोंके पांच भंग होते हैं। भावार्थ-काल और तप दोनोंको लेकर भंग निकालना चाहिये। लघुकी संदृष्टि १ हैं और गुरुकी २ है। लघु काल और लघु तप इन दोनोंको एक अंकके आकारमें ऊपर स्थापन करना चाहिये तथा गुरु काल और गुरु तप इन दोनोंको दो अंकके आकारमें नीचे स्थापन .करना चाहिये। इनकी इस तरह ३ संदृष्टि स्थापन कर भंग लाना चाहिये । शिशिर, वर्षा और हेमन्त ये तीन काल लघु हैं इनमें तप भी लघु कहा गया है एवं लघु काल और लघु तप नामका पहला भंग होता है । काल गुरु और तप लघु, तपगुरु और काल.लघु एवं काल और तपमेंसे एक गुरु लघुका दूसरा १मंग होता है। काल गुरु और तप लघु अथवा गुरु यह तोसरा भंग होता है। तप गुरु और काल गुरु अथवा लघु यह
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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