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________________ ६५ ANA प्रतिसेवाधिकार । कोई प्रायश्चित्त नहीं है और यदि अप्रासुक द्रव्यों द्वारा प्रौषधिप्रयोग करे तो उसका लघुमास प्रायश्चित्त है॥१७॥ युजानः संयते शुद्धो दिदृक्षुर्वीयमोषधेः । गृहस्थे मासमाप्नोति चार्यायांपंचकं नवा॥९॥ अर्थ-औषधिका सापर्थ्य देखनेके लिए यदि साधुमें उसका प्रयोग करे तो शुद्ध है-कोई प्रायश्चित्त नहीं । गृहस्थमें यदि प्रयोग करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्तका भागी होता. है। तथा आर्यिकामें प्रयोग करे तो कल्याणकको प्राप्त होता है। अथवा धर्म-पुष्पा अर्थात पुष्पवती आर्यिका प्रयोग करे तो भायश्चित्तको नहीं भी प्राप्त होता है ॥८॥ जिज्ञासुर्भेषजं वीर्य सादीनां प्रदर्शयेत्। . मिथ्याकारो विपन्ने स्युचतुर्मासा गुरुकृताः॥ __अर्थ-औषधिकी शक्ति जाननेका इच्छुक यदि सर्प, गोनस, चहे आदिमें उस भोषधिका प्रयोग करे तो मिथ्याकार प्रायश्चित्त है और यदि वे सर्पादि इस औषधिमयोगसे पर जांय तो उसका प्रायश्चित्त निरन्तर चार मास है अथवा निरन्तर चार पंचकल्याणक है। व्यवधानरहित एक दिनके अन्तरसे चार माह तक उपवास करना चतुर्मास है ॥ ६॥ साभोगे पादसंशुद्धा उद्वर्तादावभोजनं । पंचकं च यथासंख्यं श्रृंगारे मासिक विदुः॥१००॥ अर्थ-स्त्रीजन अथवा पिथ्याष्टियोंके देखते दुए यदि पर
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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